पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१० मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ सुवर्णादिशकलभेदाः सुवर्णत्वा- सुवर्णादि खण्डोंके ऐसे भेद हैं जो सुवर्णरूप होनेके कारण लौकिक धेकत्वविज्ञानेन विज्ञायमाना पुरुषोंद्वारा [वर्णदृष्टिसे] उनकी लौकिकैः । तथा कि वस्ति एकताका ज्ञान होनेपर जान लिये जाते हैं । इसी प्रकार प्रश्न होता सर्वस्य जगद्भेदस्यकं कारणम् , है कि ] 'सम्पूर्ण जगद्भेदका वह यदेकसिन्विज्ञाते सर्व विज्ञातं एक कारण कौन-सा है जिस एकके ही जान लिये जाने पर यह सब भवतीति । कुछ जान लिया जाता है ?' नन्वविदिते हि कस्मिनिति शङ्का-जिस वस्तुका ज्ञान नही होता उसके विषयमे 'कस्मिन' (किसको )* इस प्रकार प्रश्न प्रश्नोऽनुपपन्नः । किमस्ति तदिति । करना तो बन नहीं सकता। उस समय तो 'क्या वह है ? ऐसा तदा प्रश्नो युक्तः । सिद्धे ह्यस्तित्वं प्रश्न ही उचित है: फिर उसका अस्तित्व सिद्ध हो जानेपर ही 'कस्मिन्' ऐसा प्रश्न हो सकता है। कस्मिन्निति स्यात्, यथा कस्मिन्नि- जैसा कि अनेक आधारोंका ज्ञान होनेपर । 'किसमे रक्खा जाय' धेयमिति । ऐसा प्रश्न किया जाता है। न; अक्षरबाहुल्यादायाम- समाधान-ऐसा मत कहो, क्योकि तुम्हारे कथनानुसार प्रश्न भीरुत्वात्प्रश्नः सम्भवत्येव कस्मिन् करनेसे ] अक्षरोंकी अधिकता होती है और अधिक आयासका भय रहता न्वेकस्मिन्विज्ञाते मर्ववित्स्यात् है, अतः 'किस एकके ही जान लेनेपर मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है ?' इति ॥३॥ | ऐसा प्रश्न बन सकता है ॥ ३ ॥

  • क्योकि 'किस' या 'कौन' सर्वनामका प्रयोग वही होता है जहाँ

अनेकोंकी सत्ता स्वीकारकर उनमें से किसी एकका निश्चय करना होता है।