पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/१९

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ ११ क्या कहा अङ्गिराका उत्तर-विद्या दो प्रकारकी है तस्मै स होवाच । द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥ ४॥ उससे उसने कहा-'ब्रह्मवेत्ताओंने कहा है कि दो विद्याएँ जानने- योग्य हैं-एक परा और दूसरी अपरा' ॥ ४ ॥ तस्मै शौनकायाङ्गिरा आह उम शौनकसे अङ्गिराने कहा। १ मो बतलाते हैं- किलोवाच । किमित्युच्यते । द्वे । 'दो विद्याएँ वेदितव्य अर्थात् जानने- विद्ये वदितव्ये इत्येवं ह स्म योग्य है ऐसा जो ब्रह्मविद-वेदके किल यब्रह्मविदो वेदार्थाभिज्ञाः अर्थको जाननेवाले परमार्थदर्शी हैं परमार्थदर्शिनो वदन्ति । के वे कहते हैं । वे दो विद्याएँ कौन-सी हैं ? इसपर कहते हैं--परा अर्थात् ने इत्याह-पग च परमात्म- परमात्मविद्या और अपरा-धर्म, विद्या । अपराच धर्माधर्ममाधन- अधर्मके साधन और उनके फलमे तत्फलविषया । सम्बन्ध रखनेवाली विद्या ।' ननु कस्मिन्विदिते सर्व- शङ्का-शौनकने तो यह पूछा था कि 'किसको जान लेने पर विद्भवतीति शोनकेन पृष्टं पुरुप सर्वज्ञ हो जाता है ?' उसके उत्तरमें जो कहना चाहिये था तस्मिन्वक्तव्येऽपृष्टमाहाङ्गिरा द्वे उसकी जगह 'दो विद्याएँ हैं' आदि बातें तो अङ्गिराने बिना पूछी ही विद्ये इत्यादिना। कही हैं। नैष दोषः; क्रमापेक्षत्वात् समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उत्तर तो क्रमकी अपेक्षा प्रतिवचनस्य । अपरा हि विद्या- रखता है। अपरा विद्या तो अविद्या ही है; अतः उसका निरा. मा निराकर्तव्या । तद्- करण किया जाना चाहिये । उसके