मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ विषयं हि विज्ञानमिह परा यहाँ प्रधानतासे यही बतलाना इष्ट विद्येति प्राधान्येन विवक्षितं है कि उपनिषद्वेद्य अक्षरविषयक विज्ञान ही परा विद्या है, उपनिषद्को नोपनिषच्छब्दराशिः। वेदशब्देन शब्दराशि नहीं। और 'वेद' तु सर्वत्र शब्दराशिर्विवक्षितः। शब्दसे सर्वत्र शब्दराशि ही कही शब्दराश्यधिगमेऽपि यत्नान्तर- जाती है । शब्दसमूहका ज्ञान हो जानेपर भी गुरूपसत्ति आदिरूप मन्तरेण गुर्वभिगमनादिलक्षणं प्रयत्नान्तर तथा वैराग्यके बिना वैराग्यं च नाक्षराधिगमः सम्भव- अक्षरब्रह्मका ज्ञान नही हो सकता; इसीलिये ब्रह्मविद्याका पृथक्करण और तीति पृथक्करणं ब्रह्मविद्यायाः 'वह परा विद्या है' ऐसा कहा गया परा विद्यति कथनं चेति ॥ ५॥ है ॥ ५॥ परविद्याया वाक्याथज्ञान- यथा विधिविषय कायनेक जिस प्रकार विधि (कर्मकाण्ड) के सम्बन्धमे [ उसका प्रतिपादन कारकोपसंहारद्वारेण करनेवाले ] वाक्योंका अर्थ जाननेके वाक्यार्थज्ञानकालाद् ' समयसे भिन्न कर्ता आदि अनेकों जन्यत्वम् अन्यत्रानुष्ठेयोऽर्थोऽस्ति कारकों ( क्रियानिष्पत्तिके साधनों) के उपसंहारद्वारा अग्निहोत्र आदि अग्निहोत्रादिलक्षणो न तह अनुष्ठेय अर्थ रह जाता है, उस प्रकार परा विद्याके सम्बन्धमे नहीं परविद्याविषयः वाक्यार्थज्ञान- होता । इसका कार्य तो वाक्यार्य- ज्ञानके समकालमें ही समाप्त हो समकाल एव तु पर्यवसितो जाता है, क्योंकि केवल शब्दोके भवति । केवलशब्दप्रकाशितार्थ- : योगसे प्रकाशित होनेवाले अर्थ- ज्ञानमे स्थिति कर देनेसे भिन्न इसका ज्ञानमात्रनिष्ठाव्यतिरिक्ताभावात् । और कोई प्रयोजन नही है । अतः
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