खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ विद्यायाः मीमांमा पूर्वस्य गमेः प्रायशः प्राप्त्यर्थ- 'गम' धातु प्रायः 'प्राप्ति' अर्थमें प्रयुक्त होती है; तथा परमात्मा- त्वात् । न च परप्राप्तेरवगमा- की प्राप्ति और उसके ज्ञानके अर्थ में थस्य भेदोऽस्ति । अविद्याया अपाय कोई भेद भी नहीं है क्योंकि अविद्या- की निवृत्ति ही परमात्माकी प्राप्ति है, एव हि परप्राप्तिर्वार्थान्तरम् । इससे भिन्न कोई अन्य वस्तु नहीं । ननु ऋग्वेदादिबाह्या तर्हि शङ्का-तब तो वह (ब्रह्मविद्या) ऋग्वेदादिसे बाह्य है, अतः वह सा कथं परा विद्या परा विद्या अथवा मोक्षकी साधनभूत पगपरभेद- स्यान्मोक्षसाधनं च । ' किस प्रकार हो सकती है ? "या वेदबाह्याः स्मृतियाँ तो कहती हैं कि "जो वेदबाह्य स्मृतियाँ और जो कोई स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः कुदृष्टियाँ ( कुविचार) मर्वास्ता निष्फलाः प्रत्य तमो- परलोकमें निष्फल और नरककी निष्ठा हि ताः स्मृताः" ( मनु० साधन मानी गयी हैं ।" अतः कुदृष्टि होनेसे निष्फल होनेके कारण वह १२।९) इति हि स्मरन्ति । ग्राह्य नहीं हो सकती। तथा इससे कुदृष्टित्वान्निष्फलत्वादनादेया उपनिषद् भी ऋग्वेदादिसे बाह्य माने जायेंगे और यदि इन्हें ऋग्वेदादिमें स्यात् । उपनिषदां च ऋग्वंदादि- ही माना जायगा तो 'अथ परा' आदि वाक्यसे जो परा विद्याको बाह्यत्वं स्यात् । ऋग्वेदादित्वे तु पृथक् बतलाया गया है वह व्यर्थ पृथक्करणमनर्थकम् अथ परेति । हो जायगा । न; वेद्यविषयविज्ञानस्य समाधान-ऐसी बात नहीं है, क्योंकि [परा विद्यासे ] वेद्य- विवक्षितत्वात् । उपनिषद्वद्याक्षर- ' विषयक ज्ञान बतलाना अभीष्ट है।
पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/२१
दिखावट