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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/२४

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ न हि तस्य मूलमस्ति येन | अक्षर [ अक्षरब्रह्म ] का कोई मूल नहीं है जिससे वह अन्वित हो; अन्वितं स्यात् । वर्ण्यन्त इति जिनका वर्णन किया जाय वे वर्णा द्रव्यधर्माः स्थूलत्वादयः । स्थूलत्वादि या शुक्लत्वादि द्रव्यके धर्म ही वर्ण हैं-वे वर्ण जिसमें शुक्लत्वादयो वा । अविद्यमाना विद्यमान नहीं हैं वह अक्षर अवर्ण है; वर्णा यस्य तदवर्णमक्षरम् । अचक्षुःश्रोत्र-चक्षु (नेत्रेन्द्रिय ) और श्रोत्र ( कर्णेन्द्रिय ) ये सम्पूर्ण अचक्षुःश्रोत्रं चक्षुश्च श्रोत्रं च प्राणियोंकी रूप और शब्दको नामरूपविषये करणे सर्वजन्तूनां गृहीत करनेवाली इन्द्रियाँ है, वे जिसमें नहीं हैं उसे ही 'अचक्षुः- ते अविद्यमाने यस्य तदचक्षुः- श्रोत्र' कहते है। 'यः सर्वज्ञः श्रोत्रम्, 'यः सर्वज्ञः सर्ववित्' इति सर्ववित्' इस श्रुतिमें पुरुपके लिये चेतनावत्त्व विशेपण दिया गया है, चेतनाबच्चविशेषणात प्राप्त अतः अन्य संसारी जीवोंके समान संसारिणामिव चक्षुःश्रोत्रादिभिः उसके लिये भी चक्षःश्रोत्रादि इन्द्रियों- से अर्थसाधकत्व प्राप्त होता है, यहाँ करणैरर्थसाधकत्वं तदिहाचक्षुः- 'अचक्षुःश्रोत्रम्' कहकर उसीका निषेध किया जाता है, जैसा कि श्रोत्रमिति वार्यते "पश्यत्यचक्षुः उसके विषयमें "बिना नेत्रवाला स शृणोत्यकर्णः" (श्वे० उ०३। होकर भी देखता है, बिना कान- वाला होकर भी सुनता है" इत्यादि १९) इत्यादिदर्शनात् । कथन देखा गया है। किं च तदपाणिपादं कर्मेन्द्रिय यही नहीं, वह अपाणिपाद अर्थात् कर्मेन्द्रियोंसे भी रहित है । रहितमित्येतत् । यत एवमग्राह्य क्योंकि इस प्रकार वह अग्राह्य