पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/२५

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ मग्राहकं चातो नित्यम् , और अग्राहक भी है, इसलिये वह अविनाशि, विभुं विविधं ब्रह्मादि- नित्य-अविनाशी है । तथा विभु- ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त प्राणि- स्थावरान्तप्राणिभेदैर्भवति इति भेदसे वह विविध (अनेक प्रकारका) विभुम् । सर्वगतं व्यापकमाकाश- हो जाता है, इसलिये विभु है, सर्वगत- वत्सुमूक्ष्म शब्दादिस्थूलत्व- -व्यापक है और शब्दादि स्थूलताके कारणोंसे रहित होनेके कारणरहितत्वात् । शब्दादयो कारण आकाशके समान अत्यन्त ह्याकाशवाय्वादीनामुत्तरोत्तरं सूक्ष्म है, शब्दादि गुण ही आकाश- वायु आदिकी उत्तरोत्तर स्थूलताके स्थूलत्वकारणानि तदभावात् कारण है, उनसे रहित होनेके सुसूक्ष्मम् । किं च तदव्ययमुक्तधम कारण वह [ अक्षरब्रह्म ] सुसूक्ष्म न्वादेव न व्येतीत्यव्ययम् । न हि है । तथा उपर्युक्त धर्मवाला होनेसे ही कभी उसका व्यय ( ह्रास ) अनङ्गस्य स्वाङ्गापचयलक्षणोव्ययः नहीं होता इसलिये वह अव्यय है; सम्भवति शरीरस्येव । नापिकोशा- क्योंकि अङ्गहीन वस्तुका शरीरके समान अपने अङ्गोंका क्षयरूप पचयलक्षणो व्ययः सम्भवति , व्यय नहीं हो सकता, न राजाके राज्ञ इव । नापि गुणद्वारको समान कोशक्षयरूप व्यय ही सम्भव है और न निर्गुण तथा सर्वात्मक व्ययः सम्भवत्यगुणत्वात्सर्वात्म- होनेके कारण उसका गुणक्षयद्वारा कत्वाच्च । ही व्यय हो सकता है। यदेवंलक्षणं भूतयोनि भूतानां पृथिवी जैसे कारणं पृथिवीव स्थावरजङ्ग- जगत्का कारण है उसी प्रकार जिस ऐसे लक्षणोंवाले भूतयोनि- मानां परिपश्यन्ति सर्वत आत्म- भूतोंके कारण सबके आत्मभूत भूतं सर्वस्याक्षरं पश्यन्ति धीरा अक्षरब्रह्मको धीर-बुद्धिमान्– स्थावर-जङ्गम २