पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/२७

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ यथा पृथिव्यामोषधयो' अभिन्न कर देती है, तया जैसे बीह्यादिस्थावरान्ता इत्यर्थः । पृथिवीमें व्रीहि-यव इत्यादिसे लेकर खात्माव्यतिरिक्ता एव प्रभवन्ति। वृक्षपर्यन्त समस्त ओषधियाँ उससे यथा च सतो विद्यमानाजीवतः अभिन्न ही उत्पन्न होती हैं और पुरुषात्कंशलोमानि केशाश्च जैसे सत्-विद्यमान अर्थात् जीवित लोमानि च सम्भवन्ति विल- पुरुषसे उससे विलक्षण केश और क्षणानि । लोम उत्पन्न होते हैं। यथैते दृष्टान्तास्तथा विलक्षणं जैसे कि ये दृष्टान्त हैं उसी मलक्षणं च निमित्तान्तरानपे- प्रकार इस संसारमण्डलमें इससे विभिन्न और समान लक्षणोंवाला यह शाद्यथोक्तलक्षणादक्षगन्सम्भवति विश्व-समस्त जगत् किसी अन्य समुत्पद्यत इह संमारमण्डले निमित्तकी अपेक्षा न करनेवाले उस विश्वं ममस्तं जगत् । अनेकदृष्टा- उपर्युक्त लक्षणविशिष्ट अक्षरसे ही उत्पन्न होता है। ये अनेक दृष्टान्त तोपादानं तु सुखार्थप्रबोध- केवल विषयको सरलतासे समझनेके नार्थम् ॥ ७॥ लिये ही लिये गये हैं ॥ ७ ॥ 1 सृष्टिक्रम यह्मण उत्पद्यमानं विश्वं ब्रह्मसे उत्पन्न होनेवाला जो जगत् है वह इस क्रमसे उत्पन्न नदनेन क्रमेणोत्पद्यते न युगप- होता है, बेरोंको मुट्टी फेंक देनेके समान एक साथ उत्पन्न नहीं होता। द्रदरमुष्टिप्रक्षेपवदिति क्रमनियम- इस प्रकार उस क्रमके नियमको बतलानेकी इच्छावाले इस मन्त्रका विवक्षार्थोऽयं मन्त्र आरभ्यते- आरम्भ किया जाता है- तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते । अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम् ॥ ८ ॥