पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/२६

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक १ धीमन्तो विवेकिनः । ईदृशमक्षरं विवेकी पुरुष सब ओर देखते हैं, ऐसा अक्षर जिस विद्यासे जाना यया विद्ययाधिगम्यते सा परा जाता है वही परा विद्या है-यह विद्यति समुदायार्थः ॥६॥ इस सम्पूर्ण मन्त्रका तात्पर्य है ॥६॥ अक्षरब्रह्मका विश्वकारणत्व भूतयान्यक्षरमित्युक्तम् । तत्कथं पहले कहा जा चुका है कि अक्षरब्रह्म भूतोंकी योनि है । उसका भूतयोनिन्वमिन्युच्यते प्रसिद्ध- । वह भूतयोनित्व किस प्रकार है, सो दृष्टान्तैः- प्रसिद्ध दृष्टान्तोद्वारा बतलाया जाता है- यथोर्णनाभिः सृजते गृहृते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति । यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि तथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम् ॥ ७॥ जिस प्रकार मकड़ी जालेको बनाती और निगल जाती है, जैसे पृथिवीमें ओषधियाँ उत्पन्न होती है और जैसे सजीव पुरुपसे केश एवं लोम उत्पन्न होते है उसी प्रकार उस अक्षरसे यह विश्व प्रकट होता है। यथा लोके प्रसिद्धम्-ऊर्ण जिस प्रकार लोकमें प्रसिद्ध है नाभिठूताकीटः किश्चित्कारणा- । कि ऊर्णनाभि-मकड़ी किसी अन्य न्तरमनपेक्ष्य स्वयमेव सृजते स्व-उपकरणकी अपेक्षा न कर स्वयं शरीराव्यतिरिक्तानेव तन्तून्बहिः ही अपने शरीरसे अभिन्न तन्तुओको रचती अर्थात् उन्हे बाहर फैलाती प्रमारयति पुनस्तानेव गृह्णते च है और फिर उन्हींको गृहीत भी गृह्णाति स्वात्मभावमेवापादयति। कर लेती है, यानी अपने शरीरसे