पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/५३

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ यदपरविद्याविषयं कर्मफल जो अपरा विद्याका विषय कर्मफलरूप सत्य है वह आपेक्षिक लक्षणं सत्यं तदापेक्षिकम् । इदं है; परन्तु यह परा विद्याका विषय तु परविद्याविषयं परमार्थसल्लक्षण- परमार्थसत्स्वरूप होनेके कारण [निरपेक्ष सत्य है ] | वह यह त्वात् । तदेतत्सत्यं यथाभूतं विद्याविषयक सत्य ही यथार्थ सत्य विद्याविषयम् , अविद्याविषय- है; इससे इतर तो अविद्याका विषय होनेके कारण मिथ्या त्वाच्चानृतमितरत् । अत्यन्तपरो- है। उस सत्य अक्षरको अत्यन्त परोक्ष होनेके कारण किस प्रकार प्रत्यक्षवत् क्षत्वात्कथं नाम प्रत्यक्षवत्सत्य- जानें ? इसके लिये श्रुतिने यह मक्षरंप्रतिपद्यरनिति दृष्टान्तमाह दृष्टान्त दिया है- यथा सुदीप्तात्सुष्टु दीप्ताद् जिस प्रकार सुदीप्त-अच्छी- इद्धात्पावकादग्नेविस्फुलिङ्गा तरह दीप्त अर्थात् प्रज्वलित हुए अग्निसे उसीके-से रूपवाले सहस्रों- अग्न्यवयवाः सहस्रशोऽनेकशः अनेकों विस्फुलिङ्ग–अग्निके प्रभवन्ते निर्गच्छन्ति सरूपा अग्नि- अवयव निकलते हैं उसी प्रकार हे सलक्षणा एव तथोक्तलक्षणात् सोम्य ! उक्त लक्षणवाले अक्षर ब्रह्मसे विविध-अनेक देहरूप अक्षराद्विविधा नानादेहोपाधि- उपाधिभेदके अनुसार विहित होनेके भेदमनुविधीयमानत्वाद्विविधा है कारण अनेक प्रकारके भाव- जीव उस नाना सोम्य भावा जीवा आकाशादिव देहोपाधिके जन्मके साथ उसी घटादिपरिच्छिन्नाः सुषिरभेदा प्रकार उत्पन्न हो जाते हैं जैसे घटादि उपाधिभेदके अनुसार घटायुपाधिप्रभेदमनुभवन्ति, आकाशसे उन घटादिसे परिच्छिन्न एवं नानानामरूपकृतदेहोपाधि- बहुतसे छिद्र (घटाकाशादि ) । नाम-रूपकृत