पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/५२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय बुड वक्ष्यमाणग्रन्थस्य स अपरविद्यायाः सर्व कार्य यहाँतक अपरा विद्याका सारा कार्य मुक्तम् । स च कहा । यही संसार है; मंसारो यत्सारो उसका जो सार है, जिस अपने प्रयोजनम् यस्मान्मूलादक्षरात् 'मूलभूत अक्षरसे वह उत्पन्न होता सम्भवति यस्मिंश्च प्रलीयते तद- है और जिसमें उसका लय होता है वह पुरुषसंज्ञक अक्षरब्रह्म ही क्षरं पुरुषाख्यं सत्यम् । यसिन् सत्य है, जिसका ज्ञान होनेपर यह विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति सब कुछ जान लिया जाता है, तत्परस्या ब्रह्मविद्याया विषयः वह परा विद्याका विषय है। उसे वक्तव्य इत्युत्तरो ग्रन्थ बतलाना है, इसीलिये आगेका आरभ्यते- ग्रन्थ आरम्भ किया जाता है- अग्निसे स्फुलिङ्गोंके समान ब्रह्मसे जगत्की उत्पत्ति तदेतत्सत्यं यथा सुदीप्तात्पावकाद्विस्फुलिङ्गाः सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपाः । तथाक्षराद्विविधाः सोम्य भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति ॥१॥ वह यह ( अक्षरब्रह्म ) सत्य है । जिस प्रकार अत्यन्त प्रदीप्त अग्निसे उसीके समान रूपवाले हजारों स्फुलिङ्ग (चिनगारियाँ) निकलते है, हे सोम्य ! उसी प्रकार उस अक्षरसे अनेकों भाव प्रकट होते हैं और उसीमें लीन हो जाते हैं ॥ १ ॥