पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४८ मुण्डकोपनिषद् [ मुण्डक २ . चलनात्मक यद्यपि देहाधुपाधिभेददृष्टी जिस प्रकार [ दृष्टिदोषसे ] नामविद्यावशाद् देहभेदेषु सप्राणः आकाश तल-मलादियुक्त भासता है उसी प्रकार देहादि उपाधिभेदमें समनाः सेन्द्रियः सविषय इव दृष्टि रखनेवालोंको यद्यपि विभिन्न प्रत्यवभासते तलमलादिमदिव देहोंमें [ वह अक्षर ब्रह्म ) प्राण, आकाशं तथापि तु स्वतः परमार्थ- मन, इन्द्रिय एवं विषयसे युक्त-सा दृष्टीनामप्राणोऽविद्यमानः क्रिया- दर्शियोंको तो वह अप्राण- भासता है तो भी परमार्थखरूप- -जिसमें शक्तिभेदवांश्चलनात्मको वायुर्य- क्रियाशक्तिभेदवाला सिन्नसावप्राणः। तथामना अनेक- वायु न रहता हो तथा अमना- जिसमें ज्ञानशक्तिके अनेकों भेदवाला ज्ञानशक्तिभेदवत्सङ्कल्पाद्यात्मक सङ्कल्पादिरूप मन भी न हो, मनोऽप्यविद्यमानं यस्मिन्सोऽय- । [ इस प्रकार प्राण और मनसे रहित ही भासता है। ] 'अप्राणः' और ममनाः । अप्राणो ह्यमनाश्चेति 'अमनाः' इन दोनों विशेषणोंसे प्राणादिवायुभेदाः कर्मेन्द्रियाणि प्राणादि वायुभेद, कर्मेन्द्रियाँ और तद्विषयाश्च तथा च बुद्धिमनसी उनके विषय तथा बुद्धि, मन, बुद्धीन्द्रियाणि तद्विषयाश्च प्रति- ज्ञानेन्द्रियाँ और उनके विषय प्रतिषिद्ध हुए समझने चाहिये; षिद्धा वेदितव्याः । तथा श्रुत्य- जैसा कि एक दूसरी श्रुति उसे न्तरे—“ध्यायतीव लेलायतीव" चेष्टा करता हुआ-सा'-ऐसा 'मानो ध्यान करता हुआ-सा, मानो (बृ. उ० ४।३।७) इति । बतलाती है। यसाच्चैवं प्रतिषिद्धोपाधिद्वयः इस प्रकार क्योंकि वह [ प्राण और मन इन ] दोनों उपाधियोंसे तस्माच्छुभ्रः शुद्धः । अतोऽक्ष- रहित है इसलिये वह शुभ्र-शुद्ध है। अतः नाम-रूपकी बीजभूत रान्नामरूपबीजोपाधिलक्षितस्व उपाधिसे जिसका खरूप लक्षित