खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ 42 यस्येति सर्वत्रानुषङ्गः कर्तव्यः, आगे कहे हुए 'अस्य' पदको 'यस्य' अस्येत्यस्य पदस्य वक्ष्यमाणस्य में परिणत कर उसकी सर्वत्र यस्येति विपरिणामं कृत्वा । अनुवृत्ति करनी चाहिये । दिशाएँ जिसके कर्ण हैं, विवृत-उद्घाटित दिशः श्रोत्रे यस्य । वाग्वि- यानी प्रसिद्ध वेद जिसकी वाणी वृता उद्घाटिताः प्रसिद्धा वेदा हैं, वायु जिसका प्राण है, विश्व- यस्य । वायुः प्राणो यस्य । समस्त जगत् जिसका हृदय- हृदयमन्तःकरणं विश्वं समस्तं अन्तःकरण है; सम्पूर्ण जगत् जगदस्य यस्येत्येतत् । सर्व अन्तःकरणका ही विकार है, ह्यन्तःकरणविकारमेव जगन्मन- क्योंकि सुषुप्तिमें मनहीमें उसका स्येव सुषुप्ते प्रलयदर्शनात् । प्रलय होता देखा जाता है और जाग्रत् अवस्थामें अग्निसे स्फुलिङ्गके जागरितेऽपि तत एवाग्नि- समान उसे उसीसे निकलकर स्थित विस्फुलिङ्गवद्विप्रतिष्ठानात् । यस्य होता देखते हैं । तथा जिसके चरणों- च पद्भ्यां जाता पृथिवी । एष से पृथिवी उत्पन्न हुई है यह त्रैलोक्य- देवो विष्णुरनन्तः प्रथमशरीरी देहोपाधिक प्रथम शरीरी अनन्त देव त्रैलोक्यदेहोपाधिः सर्वेषां भूता- विष्णु ही समस्त भूतोंका अन्तरात्मा नामन्तरात्मा ॥ ४॥ स हि सर्वभूतेषु द्रष्टा श्रोता सबका कारणरूप वह परमात्मा ही समस्त प्राणियोंमें द्रष्टा, श्रोता, मन्ता विज्ञाता सर्वकारणात्मा मन्ता और विज्ञाता है तथा पञ्चाग्नि- के द्वारा जो प्रजाएँ जन्म-मृत्युरूप पञ्चाग्निद्वारेण च याः संसरन्ति । संसारको प्राप्त होती हैं वे भी
- स्वर्ग, मेघ, पृथिवी, पुरुष और स्त्री इन पाँचोंका छान्दोग्योपनिषद्के
पञ्चम प्रपाठकके तृतीय खण्ड में पञ्चामिरूपसे वर्णन किया है।