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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/६०

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ भवति सूत्रभाष्योक्तिवदिति । पदार्थ सुगमतासे समझमें आ जाता है । जो ब्रह्माण्डान्तवर्ती विराट योऽपि प्रथमजात्प्राणाद्धिरण्य- प्रथम उत्पन्न हुए प्राण यानी हिरण्यगर्भसे उत्पन्न होता है वह गर्भाजायतेऽण्डस्यान्तविराट् स अन्य तत्त्वरूपसे लक्षित कराया जानेपर भी इस पुरुष हो उत्पन्न तत्त्वान्तरितत्वेन लक्ष्यमाणोऽप्ये- होता है और पुरुषरूप ही है- यही बात यह मन्त्र बतलाता है तसादेव पुरुषाजायत एतन्मय- और उसके विशेषणोंका उल्लेख श्रेत्येतदर्थमाह । तंच विशिनष्टि- करता है- सर्वभूतान्तरात्मा ब्रह्मका विश्वरूप अग्निमूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यो दिशः श्रोत्रे वाग्विवृताश्च वेदाः । वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा ॥ ४ ॥ अग्नि ( धुलोक ) जिसका मस्तक है, चन्द्रमा और सूर्य नेत्र हैं, दिशाएँ कर्ण हैं, प्रसिद्ध वेद वाणी हैं, वायु प्राण है, सारा विश्व जिसका हृदय है और जिसके चरणोंसे पृथिवी प्रकट हुई है वह देव सम्पूर्ण भूतोंका अन्तरात्मा है ॥ ४ ॥ अग्निधुलोकः “असौ वाव अग्नि अर्थात् 'हे गौतम ! यह लोको गौतमाग्नि" (छा० उ० [स्वर्ग] लोक ही अग्नि है" इस श्रुतिके ५।४।१) इति श्रुतेः, मूर्धा अनुसार धुलोक ही जिसका मूर्धा- यस्योत्तमाकं शिरः । चक्षुषी उत्तमाङ्ग यानी शिर है,चन्द्र-सूर्य यानी चन्द्रश्च सूर्यश्चेति चन्द्रसूर्यो । चन्द्रमा और सूर्य ही नेत्र हैं। इसमन्त्रमें