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पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/६३

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ सिञ्चति योषितायां योषिति वीर्यको पुरुषरूप अग्नि योषित्- योषाग्नौ स्त्रियामिति । एवं क्रमेण योषिद्रूप अग्नि यानी स्त्रीमें सींचता बह्वीबह्वयः प्रजा ब्राह्मणाद्याः है। इस क्रमसे यह ब्राह्मणादिरूप पुरुषात्परमात्सम्प्रसूताः समु- बहुत-सी प्रजा परम पुरुषसे ही त्पन्नाः॥५॥ उत्पन्न हुई है ॥ ५॥ कर्म और उनके साधन भी पुरुषप्रसूत ही हैं किंचकर्मसाधनानि फलानि यही नहीं, कर्मके साधन और च तस्मादेवेत्याहः कथम् ? फल भी उसीसे उत्पन्न हुए हैं, ऐसा श्रुति कहती है-सो किस प्रकार ? तस्मादृचः साम यजूंषि दीक्षा यज्ञाश्च सर्वे क्रतवो दक्षिणाश्च । संवत्सरश्च यजमानश्च लोकाः सोमो यत्र पवते यत्र सूर्यः ॥ ६॥ उस पुरुषसे ही ऋचाएँ, साम, यजुः, दीक्षा, सम्पूर्ण यज्ञ, ऋतु, दक्षिणा, संवत्सर, यजमान, लोक और जहाँतक चन्द्रमा पवित्र करता है तथा मूर्य तपता है वे लोक उत्पन्न हुए हैं ॥ ६ ॥ तस्मात्पुरुपादृचो नियताक्षर उस पुरुषसे ही ऋचाएँ- पादावसाना गायत्र्यादिच्छन्दो- जिनके पाद नियत अक्षरों में समाप्त विशिष्टा मन्त्राः । साम पाश्च- होनेवाले हैं वे गायत्री आदि छन्दों- वाले मन्त्र, साम-पाञ्चभक्तिक भक्तिकं च साप्तभक्तिकं च अथवा साप्तभक्तिक स्तोभादि* स्तोमादिगीतविशिष्टम् । यजूंषि गानविशिष्ट मन्त्र तथा यजुः-

  • जिस मन्त्रमे हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन-ये पाँच

अवयव रहते हैं उसे 'पाञ्चभक्तिक' और जिसमें उपद्रव तथा आदि-ये दो अवयव और होते हैं उसे 'साप्तभक्तिक' कहते हैं । 'हुं फट' आदि अर्थशून्य वर्गों का नाम 'स्तोभ' है।