खण्ड १] शाङ्करमाल्यार्थ ५७ उससे ही [ कर्मके अङ्गभूत ] बहुत-से देवता उत्पन्न हुए । तथा साध्यगण, मनुष्य, पशु, पक्षी, प्राण-अपान, व्रीहि, यव, तप, श्रद्धा, सत्य, ब्रह्मचर्य और विधि [ ये सब भी उसीसे उत्पन्न हुए हैं ] ॥ ७ ॥ तस्साच्च पुरुषात्कर्माङ्गभूता उस पुरुषसे ही वसु आदि गणके भेदसे कर्मके अङ्गभूत बहुत-से देवा बहुधा वस्वादिगणभेदेन देवता उत्पन्न हुए हैं । तथा सम्प्रसूताः सम्यकप्रसूताःसाध्या साध्यगण देवताओंकी जाति- देवविशेषाः । मनुष्याः कर्माधि- विशेष, कर्मके अधिकारी मनुष्य, कृताः। पशवो ग्राम्यारण्याः । गाँव और जङ्गलमें रहनेवाले पशु, वयांसि पक्षिणः । जीवनं च वयस्-पक्षी, मनुष्यके जीवनरूप प्राण-अपान (श्वासोच्छ्वास) हविके मनुष्यादीनां प्राणापानौ व्रीहि- लिये ब्रीहि और यव, पुरुषका यवो हविरौँ । तपश्च कर्माङ्ग संस्कार करनेवाला तथा स्वतन्त्रतासे पुरुषसंस्कारलक्षणं स्वतन्त्रं च फल देनेवाला कर्मका अंगभूत तप, श्रद्धा-जिसके कारण सम्पूर्ण फलसाधनम् । श्रद्धा यत्पूर्वक पुरुषार्थसाधनोंका प्रयोग, चित्त- सर्वपुरुषार्थसाधनप्रयोगश्चित्त- प्रसाद और आस्तिक्यबुद्धि होती प्रमाद आस्तिक्यबुद्धिस्तथा सत्य- है, तथा सत्य-मिथ्याका त्याग मनृतवजन यथाभूतार्थवचनं एवं यथार्थ और किसीको पीडा न देनेवाला वचन, ब्रह्मचर्य-मैथुन चापीडाकरम् । ब्रह्मचर्य मैथुना- न करना और ऐसा करना चाहिये- समाचारः । विधिश्चेतिकर्तव्यता इस प्रकारकी विधि [ ये सब भी ॥ ७॥ उस पुरुषसे ही उत्पन्न हुए हैं] ||७|| इन्द्रिय, विषय और इन्द्रियस्थानादि भी ब्रह्मजनित ही हैं किं च- तथा-- सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात् सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः ।
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