पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/७१

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ - यदेतदाविब्रह्म संनिहितं सम्यक् इस प्रकार जो प्रकाशमान ब्रह्म हृदयमें संनिहित-सम्यक् स्थित है स्थितं हृदि तद्गुहाचरं नाम । वह गुहाचर--दर्शन-श्रवणादि प्रकारोंसे गुहा ( बुद्धि ) में गुहायां चरतीति दर्शनश्रवणा- सञ्चार करता है इसलिये गुहाचर नामसे विख्यात है । [वही महत्पद दिप्रकारैर्गुहाचरमिति प्रख्यातम् । है ] सबसे बड़ा होनेके कारण महत्सर्वमहत्त्वात् । पदं पद्यने वह ‘महत्' है और सबसे प्राप्त किया जाता है अथवा सारे पदार्थों- सर्वेणेति सर्वपदार्थास्पदत्वात् । का आश्रय है, इसलिये 'पद' है । कथं तन्महत्पदमित्युच्यते । वह 'महत्पद' किस प्रकार है? सो बतलाते हैं क्योंकि इस ब्रह्ममें यतोत्रास्मिन्ब्रह्मण्येतत्सर्व समर्पितं हो, रथकी नाभिमें अरोंके समान प्रवेशितं रथनाभाविवाराः। यह सब कुछ समर्पित अर्थात् भली प्रकार प्रवेशित है। एजत्-चलने- एजच्चलत्पक्ष्यादि, प्राणत्प्राणि- फिरनेवाले पक्षी आदि, प्राणत्- जो प्राणन करते हैं वे प्राणा- तीति प्राणापानादिमन्मनुष्य- पानादिमान् मनुष्य और पशु आदि, निमिषत् च -जो निमेषादि पश्वादि, निमिषच्च यनिमेषादि- क्रियावाले और च शब्दके सामर्थ्यसे क्रियावद्यञ्चानिमिषञ्चशब्दात्सम- जो निमेष नहीं करनेवाले हैं वे भी इस प्रकार ये सब इस ब्रह्ममें ही स्तमेतदत्रैव ब्रह्मणि समर्पितम् । समर्पित हैं । एतद्यदास्पदं सर्व जानथ हे हे शिष्यगण ! ये सब जिस शिष्या अवगच्छथ तदात्मभूतं जानो-समझो; वह सदसत्खरूप [ ब्रह्मरूप ] आश्रयवाले हैं उसे तुम भवतां सदसत्स्वरूपम्। सदसतो- तुम्हारा आत्मा है, क्योंकि उससे भिन्न