पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/७०

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द्वितीय वण्ड , ब्रह्मका स्वरूपनिर्देश तथा उसे जाननेके लिये आदेश अरूपं सदक्षरं केन प्रकारेण । रूपहीन होनेपर भी उस अक्षर- को किस प्रकार जानना चाहिये-- विज्ञेयमित्युच्यते- यह अब बतलाया जाता है- आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदमत्रतत्सम- पितम् । एजत्प्राणन्निमिषञ्च यदेतज्जानथ सदसद्वरेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम् ॥ १॥ यह ब्रह्म प्रकाशस्वरूप सबके हृदयमें स्थित, गुहाचर नामवाला और महत्पद है । इसीमें चलनेवाले, प्राणन करनेवाले और निमेषोन्मेष करनेवाले ये सब समर्पित हैं । तुम इसे सदसद्रूप, प्रार्थनीय, प्रजाओंके विज्ञानसे परे और सर्वोत्कृष्ट जानो ॥ १ ॥ आविः प्रकाशं संनिहितं आविः-प्रकाशवरूप, संनिहित- समीपस्थित; वागादि उपाधियोंद्वारा वागायुपाधिभिज्वलति भ्राजतीति प्रज्वलित होता है, प्रकाशित होता है-ऐसी एक अन्य श्रुतिके अनुसार श्रुत्यन्तराच्छब्दादीनुपलभमान- वह शब्दादि विषयोंको उपलब्ध वदवभासते । दर्शनश्रवणमनन- सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें दर्शन, करता-सा जान पड़ता है अर्थात् विज्ञानाद्यपाधिधर्मराविर्भूतं श्रवण, मनन और विज्ञान आदि उपाधिके धर्मोसे आविर्भूत हुआ सल्लक्ष्यते हृदि सर्वप्राणिनाम् । दिखायी देता है [अतः संनिहित हैं] ।