पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/७३

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खण्ड २] शाकरभाष्यार्थ .. महा। किंच यदणुभ्यः श्यामा- | दीप्तिमान् है । और जो श्यामाक आदि अणुओंसे भी अणु-सूक्ष्म कादिभ्योऽप्यणु च सूक्ष्मम् । च- है। 'च' शब्दसे यह समझना शब्दात्स्थूलेभ्योऽप्यतिशयेन स्थूलं चाहिये कि जो पृथिवी आदि स्थूल पृथिव्यादिभ्यः । यसिंल्लोका पदार्थोसे भी अत्यन्त स्थूल है । भूरादयो निहिताः स्थिताः, ये जिसमें भूर्लोक आदि सम्पूर्ण लोक तथा उन लोकोंके निवासी मनुष्यादि च लोकिनो लोकनिवासिनो स्थित हैं, क्योंकि सारे पदार्थ मनुष्यादयश्चैतन्याश्रया हि सर्वे चैतन्यके ही आश्रित प्रसिद्ध हैं, प्रसिद्धाः। तदेतत्सर्वाश्रयमक्षरंब्रह्म वही सबका आश्रयभूत यह अक्षर ब्रह्म है, वही प्राण है तथा वही सप्राणस्तदु वाङ्मनो वाक्च मनश्च वाणी औरमन आदि समस्त इन्द्रिय- सर्वाणि च करणानि तदन्तश्चै वर्ग है; उन सभोमें चैतन्य ओतप्रोत तन्यं चैतन्याश्रयो हि प्राणेन्द्रि- है, क्योंकि प्राण और इन्द्रिय आदिका सारा संघात चैतन्यके ही यादिसर्वसंघातः "प्राणस्य प्राणम्" आश्रित है, जैसा कि "वह प्राणका ( बृ० उ०४ । ४ । १८) इति प्राण है" इत्यादि एक अन्य श्रुतिसे श्रुत्यन्तरात् । सिद्ध होता है। यत्प्राणादीनामन्तश्चैतन्यमक्षरं [इस प्रकार] प्राणादिके भीतर रहनेवाला जो अक्षर चैतन्य तदेतत्सत्यमवितथमतोऽमृत- है वही यह सत्य यानी अवितथ है; मविनाशि तद्वद्धव्यं मनसा अतः वह अमृत-अविनाशी है उसका वेधन यानी मनसे ताडन ताडयितव्यम् । तसिन्मनःसमा- करना चाहिये । अर्थात् उसमें मनको समाहित करना चाहिये। धानं कर्तव्यमित्यर्थः । यसादेवं हे सोम्य ! क्योंकि ऐसी बात है,