पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ हे सोम्य विद्धयक्षरे चेतः इसलिये तू वेधन कर यानी अपने समाधत्स्व ॥२॥ चित्तको उस अक्षरमें लगा दे ॥२॥ ब्रह्मवेधन की विधि कथं चेद्धव्यमित्युच्यते उसका किस प्रकार वेधन करना चाहिये, सो बतलाया जाता है- धनुर्गृहीत्वौपनिषदं महास्त्रं शरं ह्युपासानिशितं सन्धयीत । आयम्य तद्भावगतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ॥३॥ हे सोम्य ! उपनिषद्वद्य महान् अस्त्ररूप धनुम् लेकर उसपर उपासनाद्वारा तीक्षण किया हुआ बाण चढ़ा; और फिर उसे खींचकर ब्रह्म- भावानुगत चित्तसे उस अक्षररूप लक्ष्यका ही वेधन कर ॥ ३ ॥ धनुरिष्वासनं गृहीत्वादायौ औपनिपद-उपनिषदोंमें वर्णित पनिषदमुपनिषत्सु भवं प्रसिद्धं यानी उपनिषत्प्रसिद्ध महात्र- महास्त्रं महच्च तदस्त्रं च महास्त्रं महान् अखरूप धनुप्-शरासन लेकर उसपर बाण चढ़ावे- धनुस्तसिञ्शरम्ः किंविशिष्टम् किस प्रकारका बाण चढ़ावे? इसपर इत्याह-उपासानिशितं सन्तता- कहते हैं-उपासनासे निशित यानी भिध्यानेन तनूकृतं संस्कृतमित्ये- निरन्तर ध्यान करनेसे पैनाया तत्, सन्धयीत सन्धानं कुर्यात् । हुआ-संस्कार किया हुआ बाण चढ़ावे । फिर बाण चढ़ानेके सन्धाय चायम्याकृष्य सेन्द्रियम् अनन्तर उसे खींचकर अर्थात् अन्तःकरणं स्वविषयाद्विनिवर्त्य इन्द्रियोंके सहित अन्तःकरणको