मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ यथा धनुषास्त इषुर्लक्ष्ये । अतः हुआ बाण अपने लक्ष्यों । अतः धनुषके समान होनेसे प्रणव ही प्रणवो धनुरिव धनुः । शरी धनुष है । तथा आत्मा ही बाण है, यात्मोपाधिलक्षणः पर एव जो कि जलमें प्रतिबिम्बित हुए जले सूर्यादिवदिह प्रविष्टो देह सम्पूर्ण बौद्ध प्रतीतियोंके साक्षीरूपसे सूर्य आदिके समान इस शरीरमें सर्वबौद्धप्रत्ययसाक्षितया । स प्रविष्ट हो रहा है । वह बाणके समान अपने ही आत्मा (खरूपभूत) शर इव स्वात्मन्येवार्पितोऽक्षरे अक्षरब्रह्ममें अनुप्रविष्ट हो रहा ब्रह्मण्यतो ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । है । इसलिये ब्रह्म उसका लक्ष्य लक्ष्य इव मनासमाधित्सुभिः कहा जाता है, क्योंकि मनको समाहित करनेकी इच्छावाले पुरुषों- आत्मभावेन लक्ष्यमाणत्वात् । को वही आत्मभावसे लक्षित होता है। तत्रैवं सत्यप्रमत्तेन बाह्यविष अतः ऐसा होनेके अनन्तर अप्रमत्त बाह्य विषयोंकी उपलब्धि- योपलब्धितृष्णाप्रमादवर्जितेन की तृष्णारूप प्रमादसे रहित होकर सर्वतो विरक्तेन जितेन्द्रियेणैकाग्र- अर्थात् सब ओरसे विरक्त यानी | जितेन्द्रिय होकर एकाग्रचित्तसे चित्तेन वेद्धव्यं ब्रह्म लक्ष्यम् । ब्रह्मरूप अपने लक्ष्यका वेधन करना ततस्तद्वेधनादूर्ध्व शरवत्तन्मयो चाहिये। और फिर उसका वेधन कर- नेके अनन्तर बाणके समान तन्मय हो मवेत् । यथा शरस्य लक्ष्यैकात्म- जाना चाहिये । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार बाणका अपने लक्ष्यसे त्वं फलं भवति तथा देहाद्यात्म- एकरूप हो जाना ही फल है उसी प्रत्ययतिरस्करणेनाक्षरैकात्मत्वं प्रकार देहादिमें आत्मत्वकी प्रतीति- का तिरस्कार कर उस अक्षरब्रह्मसे फलमापादयदित्यर्थः ॥ ४ ॥ एकात्मत्वरूप फल प्राप्त करे ॥४॥
पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/७६
दिखावट