पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/७५

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खण्ड २] शाङ्करभाष्यार्थ ६७ - लक्ष्य एवावर्जितं कृत्वेत्यर्थः। उनके विषयोंसे हटा अपने लक्ष्यमें ही जोड़कर-क्योंकि इस धनुषको न हि हस्तेनेव धनुष आयमनमिह हाथसे धनुष चढ़ाने के समान नहीं सम्भवति । तद्भावगतेन तसिन् । वींचा जा सकता-तद्भावगत अर्थात् अपने लक्ष्य उस अक्षरब्रह्ममें जो ब्रह्मण्यक्षरे लक्ष्ये भावना भावः । भावना है उस भावमें गये हुए तद्गतेन चेतसा लक्ष्यं तदेव यथो- चित्तसे हे सोम्य ! ऊपर कहे हुए लक्षणोंवाले अपने उसी लक्ष्य अक्षर- क्तलक्षणमक्षरं सोम्य विद्धि ॥३॥ · ब्रह्मका वेधन कर ॥ ३ ॥ वेधनके लिये ग्रहण किये जानेवाले धनुषादिका स्पष्टीकरण यदुक्तं धनुरादि तदुच्यते ऊपर जो धनुष आदि बतलाये गये हैं उनका उल्लेख किया जाता है- प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥४॥ प्रणव धनुप है, [ सोपाधिक ] आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है । उसका सावधानतापूर्वक वेधन करना चाहिये और बाणके समान तन्मय हो जाना चाहिये ॥ ४ ॥ प्रणव ओङ्कारो धनुः ।। प्रणव यानी ओङ्कार धनुष जिस प्रकार शरासन (धनुष) यथेष्वासनं लक्ष्ये शरस्य प्रवेश- : लक्ष्यमें बाणके प्रवेश कर जानेका साधन है उसी प्रकार [ सोपाधिक ] कारणं तथात्मशरस्याक्षरे लक्ष्ये आत्मारूप बाणके अपने लक्ष्य । अक्षरमें प्रवेश करनेका कारण प्रवेशकारणमोङ्कारः । प्रणवेन ओङ्कार है । अभ्यास किये हुए प्रणवके द्वारा ही संस्कृत होकर ह्यभ्यस्यमानेन संस्क्रियमाणस्तदा- वह उसके आश्रयसे बिना किसी बाधाके अक्षरब्रह्ममें इस प्रकार लम्बनोप्रतिबन्धेनाक्षरेऽवतिष्ठते स्थित होता है, जैसे धनुषसे छोड़ा