पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/७८

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मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ तथा- सेतुरेतदात्मज्ञानममृतस्यामृतत्वस्य यह आत्मज्ञान संसार-महासागरको मोक्षस्य प्राप्तये सेतुरिव सेतुः पार करनेका साधन होनेके कारण अमृत-अमरत्व यानी मोक्षकी संसारमहोदधेः उत्तरण- प्राप्तिके लिये [ नदीके पार जानेके हेतुत्वात्तथा श्रुत्यन्तरं साधनभूत ] सेतुके समान सेतु है । "तमेव विदित्वातिमृत्युमेति जैसा कि-"उसीको जानकर पुरुष मृत्युको पार कर जाता है, नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" उसकी प्राप्तिका [इसके सिवा] (श्वे० उ० ३।८, ६।१५) और कोई मार्ग नहीं है" इत्यादि इति ॥५॥ । एक अन्य श्रुति भी कहती है ॥ ५॥ ओङ्काररूपसे ब्रह्मचिन्तनकी विधि किं च- अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः स एषोऽन्तश्वरते बहुधा जायमानः । ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानं खस्ति वः पाराय तमसः परस्तात् ॥६॥ रथचक्रकी नाभिमें जिस प्रकार अरे लगे होते हैं उसी प्रकार जिसमें सम्पूर्ण नाडियाँ एकत्रित होती हैं उस ( हृदय ) के भीतर यह अनेक प्रकारसे उत्पन्न हुआ सञ्चार करता है । उस आत्माका 'ॐ' इस प्रकार ध्यान करो । अज्ञानके उस पार गमन करनेमें तुम्हारा कल्याण हो [ अर्थात् तुम्हें किसी प्रकारका विघ्न प्राप्त न हो] ॥६॥ अरा इव, यथा रथनाभी अरोंके समान अर्थात् जिस प्रकार समर्पिता अरा एवं संहताः रथकी नाभिमें अरेसमर्पित रहते हैं उसी प्रकार शरीरमें सर्वत्र व्याप्त नाडियाँ सम्प्रविष्टा यत्र यस्मिन्हृदये सर्वतो जिस हृदयमें संहत अर्थात् प्रविष्ट देहव्यापिन्यो नाड्यस्तस्मिन्हदये हैं उसके भीतर यह बौद्ध प्रतीतियों- -