पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/७९

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खण्ड २] शाङ्करमाल्यार्थ करता- बुद्धिप्रत्ययसाक्षिभूतः स एष का साक्षीभूत और जिसका प्रकरण प्रकृत आत्मान्तर्मध्ये चरते चरति चल रहा है वह आत्मा देखता, सुनता, मनन करता और जानता वर्तते पश्यञ्शृण्वन्मन्वानो हुआ अन्तःकरणरूप उपाधिका विजानन्बहुधानेकधा क्रोधहर्षादि- अनुकरण करनेवाला होनेसे उसके प्रत्ययैर्जायमान इव जायमा- हर्ष-क्रोधादि प्रत्ययोंसे मानो [नवीन- नोऽन्तःकरणोपाध्यनुविधायित्वा- नवीनरूपसे ] उत्पन्न होता हुआ मध्यमें सञ्चार -वर्तमान द्वदन्ति लौकिका हृष्टो जातः । रहता है । इसीसे लौकिक पुरुष 'वह क्रुद्धो जात इति । तमात्मानम् । हर्षित हुआ, वह क्रोधित हुआ' ऐसा ओमित्येवमोङ्कारालम्बनाः सन्तो कहा करते हैं। उस आत्माको 'ॐ' यथोक्तकल्पनया ध्यायथ चिन्त- इस प्रकार अर्थात् उपर्युक्त कल्पनासे ओङ्कारको आलम्बन बनाकर ध्यान यता यानी चिन्तन करो। उक्तं वक्तव्यं च शिष्येभ्य विद्वान् आचार्यको शिष्योंसे आचार्येण जानता । शिष्याश्च जो कुछ कहना था वह कह दिया । इससे ब्रह्मविद्याके जिज्ञासु ब्रह्मविद्याविविदिपुत्वानिवृत्त होनेके कारण शिष्यगण भी सब कर्माणो मोक्षपथे प्रवृत्ताः । तेषां कर्मोसे उपरत होकर मोक्षमार्गमे जुट गये । अतः आचार्य निर्विघ्नतया ब्रह्मप्राप्तिमाशास्त्या- उन्हें निर्विघ्नतापूर्वक ब्रह्मप्राप्तिका चार्यः । स्वस्ति निर्विघ्नमस्तु वो आशीर्वाद देते हैं-'पार अर्थात् पर तीरपर जानेके लिये तुम्हें खस्ति युष्माकं पाराय परकूलाय । —निर्विघ्नता प्राप्त हो।' किसके परस्तात्करसादविद्यातमसः । पार जानेके लिये ? अविद्या- रूप अन्धकारके पार जानेके लिये अविद्यारहितब्रह्मात्मस्वरूपगम- अर्थात् अविद्यारहित नायेत्यर्थः ॥ ६॥ खरूपकी प्राप्तिके लिये ॥६॥ 1 ब्रह्मात्म-