पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/८१

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खण्ड २] शाकरमाष्यार्य यस्य शासनेलातचक्रवदजस्रं शासनमें सूर्य और चन्द्रमा अलात- चक्रके समान निरन्तर घूमते रहते भ्रमतः । यस्य शासने सरितः | हैं, जिसके शासनमें नदियाँ और सागराश्चखगोचरं नातिकामन्ति। समुद्र अपने स्थानका अतिक्रमण नहीं तथा स्थावरं जङ्गमं च यस्य करते, इसी प्रकार स्थावरजङ्गम जगत् जिसके शासनमें नियमित शासने नियतम् । तथा चर्तवो- रहता है; तथा ऋतु, अयन और ऽयने अब्दाश्च यस्य शासनं नाति- वर्ष-ये भी जिसके शासनका क्रामन्ति । तथा कर्तारः कर्माणि उल्लहन नहीं करते एवं कर्ता, कर्म और फल जिसके शासनसे अपने- फलं च यच्छासनात्स्वं खं कालं अपने कालका अतिक्रमण नहीं नातिवर्तन्ते स एष महिमा भुवि करते-ऐसी यह महिमा संसारमें जिसकी है वह ऐसी महिमावाला लोके यस्य स एष सर्वज्ञः एवं- सर्वज्ञ देव दिव्य-द्युतिमान् यानी महिमा देवो दिव्ये द्योतनवति समस्त बौद्ध प्रत्ययोंसे होनेवाले ब्रह्मपुरमें क्योंकि सर्वबौद्धप्रत्ययकृतद्योतने ब्रह्म- चैतन्यस्वरूपसे इस (हृदयकमलस्थित पुरे, ब्रह्मणोऽत्र चैतन्यस्वरूपेण आकाश ) में ब्रह्मकी सर्वदा अभिव्यक्ति होती है इसलिये नित्याभिव्यक्तत्वाब्रह्मणः पुरं हृदयकमल ब्रह्मपुर है, उसमें जो हृदयपुण्डरीकं तसिन्यव्योम आकाश है उस हृदयपुण्डरी- कान्तर्गत आकाशमें प्रतिष्ठित तसिन्व्योम्याकाशे हत्पुण्डरीक- ( स्थित ) हुआ-सा उपलब्ध होता मध्यस्थे, प्रतिष्ठित इबोपलभ्यते। है । इसके सिवा आकाशवत् सर्वव्यापक ब्रह्मका न द्याकाशवत्सर्वगतम गतिरा- अपवा स्थित होना और किसी गति प्रतिष्ठा वान्यथा सम्भवति । प्रकार सम्भव नहीं है । प्रकाशयुक्त . जाना-आना