पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/८०

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७२ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ पार करके अपर ब्रह्मका वर्णन तथा उसके चिन्तनका प्रकार योऽसौ तमसः परस्तात्संसार-। यह जो अज्ञानान्धकारके परे महोदधिं तीा गन्तव्यः पर- संसारमहासागरको जाने योग्य परविद्याका प्रदेश है विद्याविषय इति स कस्मिन्वर्तत वह किसमें वर्तमान है ? इसपर इत्याह- | कहते हैं- यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्यैष महिमा भुवि । दिव्ये ब्रह्मपुरे हयेष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः॥ मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं सन्निधाय । तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपममृतं यद्विभाति ॥ ७ ॥ जो सर्वज्ञ और सर्ववित् है और जिसकी यह महिमा भूर्लोकमें स्थित है वह यह आत्मा दिव्य ब्रह्मपुर आकाश ( हृदयाकाश ) में स्थित है । वह मनोमय तथा प्राण और [ सूक्ष्म ] शरीरको [एक देहसे दूसरे देहमें ] ले जानेवाला पुरुष हृदयको आश्रित कर अन्न ( अन्नमय देह ) में स्थित है । उसका विज्ञान ( अनुभव ) होनेपर ही विवेकी पुरुष, जो आनन्दस्वरूप अमृत ब्रह्म प्रकाशित हो रहा है, उसका सम्यक साक्षात्कार करते हैं ॥ ७॥ यःसर्वज्ञः सर्वविद्व्याख्यातः 'जो सर्वज्ञ और सर्ववित् है' इसकी व्याख्या पहले (मुण्ड० १ । तं पुनर्विशिनष्टिः यस्यैष प्रसिद्धो १।९ में ) की जा चुकी है । उसोके फिर और विशेषण बतलाते महिमा विभूतिः। कोऽसौ महिमा ? हैं—जिसकी यह प्रसिद्ध महिमा यानी विभूति है; वह महिमा क्या यस्येमे द्यावापृथिव्यौ शासने है ? ये धुलोक और पृथिवी जिसके शासनमें धारण किये हुए (यानी विधृते तिष्ठतः सूर्याचन्द्रमसौ स्थिरतापूर्वक ) स्थित हैं, जिसके