पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/८६

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७८ मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक २ स्तद्विदुरात्मप्रत्ययानुसारिणः । वे आत्मानुभवका अनुसरण करने- वाले आत्मज्ञानी पुरुष जानते हैं । यस्मात्परं ज्योतिस्तस्मात्त एव क्योंकि वह परम ज्योति है इसलिये तद्विदुर्नेतरे बाह्यार्थप्रत्ययानु- उसे वे ही जानते हैं; दूसरे बाह्य प्रतीतियोंका अनुसरण करनेवाले सारिणः ॥९॥ पुरुप नहीं जानते ॥१॥ कथं तज्ज्योतिषां ज्योति वह ज्योतियोंका ज्योति किस रित्युच्यते-- प्रकार है ? सो बतलाया जाता है- ब्रह्मका सर्वप्रकाशकत्व न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः । तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥१०॥ वहाँ ( उस आत्मस्वरूप ब्रह्ममें ) न सूर्य प्रकाशित होता है और न चन्द्रमा या तारे । वहाँ यह बिजली भी नहीं चमकती फिर यह अग्नि किस गिनतीमें है ? उसके प्रकाशित होनेसे ही सब प्रकाशित होता है और यह सब कुछ उसीके प्रकाशसे प्रकाशमान है ॥ १० ॥ तत्र तस्मिन्वात्मभृते वहाँ-अपने ब्रह्ममें सबको प्रकाशित करनेवाला ब्रह्मणि सर्वावभासकोऽपि सूर्यो सूर्य भी प्रकाशित नहीं होता भाति । तद्ब्रह्म न प्रकाशयति अर्थात् वह भी उस ब्रह्मको प्रकाशित इत्यर्थः । स हि तस्यैव भासा नहीं करता । वह (सूर्य) तो उस (ब्रह्म) के प्रकाशसे ही सर्वमन्यदनात्मजातं प्रकाशयति अन्य अनात्मपदापोंको आत्मस्वरूप सब