पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/८५

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खण्ड २] शाङ्करमायार्थ हिरण्मये ज्योतिर्मये बुद्धि हिरण्मय-ज्योतिर्मय अर्थात् विज्ञानप्रकाशे परे कोशे कोश बुद्धिवृत्तिके प्रकाशरूप परमकोशमें, जो आत्मखरूपकी उपलब्धिका इवासे, आत्मस्वरूपोपलब्धि- स्थान होनेके कारण तलवारके | कोश ( म्यान) के समान है और स्थानत्वात् ; परं तत्सर्वाभ्यन्तर- सबसे भीतरी होनेके कारण श्रेष्ठ है, त्वात् तस्मिन् विरजमविद्याद्यशेष- उसमें विरज-अविद्यादि सम्पूर्ण दोषरजोमलवर्जितं ब्रह्म सर्व- दोषरूप मलसे रहित ब्रह्म विराजमान है, जो सबसे बड़ा तथा सर्वरूप महत्त्वात् सर्वात्मत्वाच्च । निष्कलं होनेके कारण ब्रह्म है । वह निष्कल है; निर्गताः कला यस्मात्तन्निष्कलं जिससे सब कलाएँ निकल गयी हों उसे निष्कल कहते हैं अर्थात् वह निरवयवम् इत्यर्थः। निरवयव है। यस्माद्विरजं निष्कलं चातस्त क्योंकि ब्रह्म विरज और निष्कल च्छु_ शुद्धं ज्योतिषां सर्वप्रका- है इसलिये वह शुभ्र यानी शुद्ध और ज्योतियों-अग्नि आदि शात्मनामग्न्यादीनामपितज्ज्यो- सम्पूर्ण प्रकाशमय पदार्थोंका भी तिरवभासकम् । अग्न्यादीनाम् ज्योतिः :-प्रकाशक है । तात्पर्य अपि ज्योतिष्ट्रमन्तर्गतब्रह्मात्म- यह है कि अग्नि आदिका ज्योति- मयत्व भी अपने अन्तर्वर्ती ब्रह्मात्म- चैतन्यज्योतिर्निमित्तमित्यर्थः । चैतन्यरूप ज्योतिके ही कारण है। तद्धि परंज्योतिर्यदन्यानवभाष्यम् जो किसी अन्यसे प्रकाशित न आत्मज्योतिस्तद्यदात्मविद होनेवाला आत्मज्योति है वही परम ज्योति है, जिसे कि आत्मवेत्ता- आत्मानं स्वंशब्दादिविषयबुद्धि- जो विवेकी पुरुष आत्मा अर्थात् प्रत्ययसाक्षिणं ये विवेकिनो अपनेको शब्दादि विषय और विदुर्विजानन्ति त आत्मविद- बुद्धिप्रत्ययोंका साक्षी जानते हैं