पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/९३

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खण्ड १] शाङ्करभाष्यार्थ भोक्त्रोनित्यसाक्षित्वसत्तामात्रण। भोग्य दोनोंका प्रेरक ही है। अतः स त्वनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति वह दूसरा तो फल-भोग न करके केवल देखता ही है-उसका पश्यत्येव केवलम् । दर्शनमात्रं प्रेरकत्व तो राजाके समान केवल हि तस्य प्रेरयितृत्वं राजवत् ॥१|| दर्शनमात्र ही है ॥ १ ॥ ईश्वरदर्शनसे जीवकी शोकनिवृत्ति तत्रैवं सति- अतः ऐसा होनेसे- समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नो- उनीशया शोचति मुह्यमानः । जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः ॥ २॥ [ ईश्वरके साथ ] एक ही वृक्षपर रहनेवाला जीव अपने दीन- स्वभावके कारण मोहित होकर शोक करता है । वह जिस समय [ ध्यानद्वारा ] अपनेसे विलक्षण योगिसेवित ईश्वर और उसकी महिमा [ संसार ] को देखता है उस समय शोकरहित हो जाता है ॥ २ ॥ समाने वृक्षे यथोक्ते शरीरे समान वृक्षपर यानी पूर्वोक्त शरीरमें अविद्या, कामना, कर्मफल पुरुषो भोक्ता जीवोऽविद्याकाम- और रागादिके भारी भारसे आक्रान्त कर्मफलरागादिगुरुभाराक्रान्तो- होकर समुद्रके जलमें डूबे हुए तूं बेके समान निमग्न--निश्चयपूर्वक ऽलाबुरिव सामुद्रे जले निमग्नो देहात्मभावको प्राप्त हुआ यह भोक्ता निश्चयेन देहात्मभावमापन्नोऽय- जोव 'मैं यही हूँ', 'मैं अमुकका पुत्र मेवाहममुष्य पुत्रोऽस्य नप्ता कृशः हूँ', 'इसका नाती हूँ', 'कृश हूँ', .