पृष्ठ:मुण्डकोपनिषद्.djvu/९४

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८६ मुण्डकोपनिषद् [ मुण्डक ३ . स्थूलो गुणवानिर्गुणः सुखी | 'स्थूल हूँ', 'गुणवान् हूँ', 'गुणहीन हूँ', 'सुखी हूँ' 'दुःखी हूँ', इत्यादि दुःखीत्येवंप्रत्ययो नास्त्यन्यो- प्रकारके प्रत्ययोंवाला होनेसे तथा 'इस देहसे भिन्न और कुछ नहीं है। ऽस्मादिति जायते म्रियते संयुज्यते ऐसा समझनेके कारण उत्पन्न होता, मरता एवं अपने सम्बन्धियोंसे वियुज्यते च सम्बन्धिबान्धवैः । मिलता और बिछुड़ता रहता है । अतोनीशया न कस्यचित् अतः अनीशावश-'मैं किसी समर्थोऽहं पुत्रो मम विनष्टो मृता कार्यके लिये समर्थ नहीं हूँ, मेरा

पुत्र नष्ट हो गया और स्त्री भी मर

मे भार्या किं मे जीवितेनेत्येवं गयी, अब मेरे जीवनसे क्या लाभ दीनभावोऽनीशा तया शोचति है ?'--इस प्रकारके दीनभावको अनीशा कहते हैं, उससे युक्त होकर सन्तप्यते मुद्यमानोऽनेकैरनर्थ- अविवेकवश अनेकों अनर्थमय प्रकारैरविवेकतया चिन्तामापद्य- प्रकारोंसे मोहित अर्थात् आन्तरिक चिन्ताको प्राप्त हुआ वह शोक यानी सन्ताप करता रहता है स एवं प्रेततिर्यमनुष्यादि इस प्रकार प्रत, तिर्यक् और योनिष्पाजवं जवीभावमापन्नः मनुष्यादि योनियोंमें निरन्तर लघुताको प्राप्त हुआ वह जिस समय कदाचिदनेकजन्मसु शुद्धधर्म- अनेकों जन्मोंमें कभी अपने शुद्ध सञ्चितनिमित्ततः केनचित्परम- धर्मके सञ्चयके कारण किसी परम कारुणिकेन दर्शितयोगमार्गो- कारुणिक गुरुके द्वारा योगमार्ग दिखलाये जानेपर अहिंसा, सत्य, ऽहिंसासत्यब्रह्मचर्यसर्वत्यागशम- ब्रह्मचर्य, सर्वत्याग और शम-दमादि- दमादिसम्पन्नः समाहितात्मा से सम्पन्न तथा समाहितचित्त होकर सन् जुष्टं सेवितमनेकैोगमार्गः ध्यान करनेपर अनेकों योगमार्गों और मानः। ,