मुण्डकोपनिषद् [मुण्डक ३ यस्त्वेवं साक्षादात्मानंप्राणस्य तात्पर्य यह कि जो इस प्रकार प्राणं विद्वानतिवादी स न प्राणके प्राण साक्षात् आत्माको जाननेवाला है वह अतिवादी नहीं भवतीत्यर्थः । सर्व यदात्मैव होता । जब कि उसने यह देखा है कि सब आत्मा ही है, उससे नान्यदस्तीति दृष्टं तदा किं भिन्न कुछ भी नहीं है तब वह ह्यसावतीत्य वदेत् । यस्य त्वपर- किसका अतिक्रमण करके बोलेगा ? जिसकी दृष्टि में कुछ और दीखने- मन्यद् दृष्टमस्ति स तदतीत्य वाला पदार्थ है वही उसका वदति । अयं तु विद्वानात्मनो- अतिक्रमण करके बोलता है। किन्तु ऽन्यन्न पश्यति नान्यच्छृणोति यह विद्वान् तो आत्मासे भिन्न न कुछ देखता है, न सुनता है और न नान्यद्विजानाति । अतो नाति- कुछ जानता ही है । इसलिये वदति। यह अतिवादन भी नहीं करता । किं चात्मक्रीड आत्मन्येव च यही नहीं, वह [आत्मक्रीड, आत्मरति और क्रियावान् हो जाता क्रीडा क्रीडनं यस्य नान्यत्र पुत्र-' है। ] आत्मक्रीड-जिसकी आत्मामें दारादिषु स आत्मक्रीडः। ही क्रीडा हो, अन्य स्त्री-पुत्रादिमें न हो उसे आत्मक्रीड कहते हैं; तथात्मरतिरात्मन्येव च रती तथा जिसकी आत्मामें ही रति- रमणं प्रीतिर्यस्य स आत्मरतिः। रमण । यानी प्रीति हो वह आत्मरति कहलाता है। क्रीडा बाह्य साधनकी क्रीडा बाह्यसाधनसापेक्षा, रतिस्तु अपेक्षा रखनेवाली होती है और वह 'इत्थंभूतलक्षण' कहलाता है; उसमें तृतीया विभक्ति होती है । जैसे 'जटाभिस्तापसः' (जटाओंसे तपस्वी है ) इस वाक्यमें जटाओंके द्वारा तपस्वी होना लक्षित होता है। अतः 'जटा' में तृतीया विभक्ति है । इसी प्रकार 'सर्वभूत' शब्दसे ईश्वरका सब भूतोंमें स्थित होना लक्षित होता है ।
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