द्वितीय अंक राक्षस-भारही आप) भला इतने तक तो कुछ चिंता नहीं ३२. क्यों क वह जोगी है उसका घर विना जी न घबड़ायगा । (प्रकाश) मित्र! उस पर भाराध क्या ठहराया ? दिराधगुप्त-कि इसी दुष्ट ने राक्षस की भेजी विषकन्या से पर्वतेश्वर को मार डाला। राक्षस-(आप ही पाप ) वाह रे को ठेल्य वाह ! क्यों न हो! निज कलंक हम पै घरयो, इत्यो अर्थ बँटवार । नीति बाज तुव एक ही फल उपजवत हजार ॥ {प्रकाश ) हाँ फिर? विधाप्त-फर चंद्रगुत के न.श को इसने दारुवर्मादिक नियत किए थे यह दोष लगा कर शकटदास को सूजी दे दी। राक्षस-(दुःख से ) हा मित्र ! शकटदास ! तुम्हारी बड़ी अयोग्य मृत्यु हुइ। अथवा स्वामी के हेतु तुम्हारे प्राण गए इससे कुछ सोच नहीं है । सोच हमी लागों का है कि स्वामी के मरने पर भी जीना चाहते है। विराधगुप्त-मंत्री ! ऐसा न सोचिए, आप स्वामी का काम कीजिए। राक्षस-मित्र ! केल है यह शोक, जीव, लोभ अब लौं बचे । स्वामी गयो परलोक पै कृतघ्न इत ही रहे। विराधगुप्त-हाराज! ऐसा नहीं ( 'केवल हैं यह ऊपर ३४० का छद फिर से पढ़ता है)। राक्षस-मत्र ! कहो और भी सैकड़ों मित्र का नाश सुनने को ये पापा कान उप.स्थत है। विराधगुप्त-यह सब सुन कर चदनदास ने बड़े वष्ट से आपके टुब का छिपाया। राक्षस--मित्र ! उस दुष्ट चाणक्य के तो चंदनदास ने विरुद्ध हो किया। विराधगुप्त - तो मित्र का बिगाड़ करना तो अनुचित हो था।
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