पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१०३

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मुद्राराक्षस नाट राक्षस-हाँ, फिर क्या हुआ। विराधगुप्त-तब चाणक्य ने आपके कुटु'ब को चंदनदास से ३५ बहुत माँगा पर उसने नहीं दिया इस पर दुष्ट ब्राह्मण ने- राक्षस- घबड़ा कर ) क्या चंदनदास को मार डाला । विधिगुप्त -नहीं, मारा तो नहीं पर स्त्री पुत्र धन समेत ब कर बंदीघर में भेज दिया। राक्षस-तो ऐसा क्या सुखी हो कहते हो कि बधन में में दिया ? अरे यह कहो कि मंत्री राक्षस को कुटुव सहित व रक्खा है। [प्रियंवदक पाता है ] . प्रियंवदक-जय जय जय महाराज ! बाहर शकटदास खड़े हैं। राक्षस-(आश्चार्य से ) सच ही! प्रियंवदक-महाराज! पारके सेवक कभी मिथ्या बोलते हैं ? राक्षस-मित्र विराधगुप्त ! यह क्या ? • विरोधगुप्त-महाराज! होनहार जो बचाया चाहे तो कौन र • सकता है! राक्षस-प्रियंवदक ! अरे जो सच ही कहता है तो उनको झट साता क्यों नहीं? प्रियंवदक-जो आज्ञा (जाता है)। . - सिद्धार्थक के सग शकटदास भाता है] शकटदाम-देख कर आप ही आप) वह सूली गड़ी जो बड़ी हड़ के, सोई चंद्र को राज विरुयो पनतें। लपटी वह फाँस की डोर सोई - मनु श्री बपटी वृषले मन तें। बजो डौंको नियादार की नृप नंद के, . सोऊ खल्यो इन आँखन तें। नहिं जानि परै इतनोहूँ भए केहि हेतु न प्रान कढ़े तन तें।