पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१०७

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मुद्राराक्षस नाटक तृतीय अङ्क स्थान-राजभवन की अटारी [कंचुकी आता है ] कंचुकी- हे रूप आदिक विषय जो राखे हिये बहु लोभ सों। सो मिटे इंद्रीगन सहित है सिथिल भतिही छोभ सों ॥ मानत कहो कोउ नाहिं, सब अँग अँग ढोले 8 गये। तौहून तृष्णे। क्यों तजति तू मोहि बूढ़ोहोए १॥ (आकाश की ओर देखकर) अरे ! अरे ! सुगांगप्रासाद के लोगो ! सुनो महाराज चंद्रगुप्त ने तुम लोगों को यह अज्ञा दी है कि 'कौमुदी महोत्सव के होने से परम शोभित कुसुमपुर को मैं देखना चाहता हूँ। इससे उस अटारी को बिछौने इत्यादि से सजा रक्खो देर क्यों करते हो ? (आकाश की ओर देखकर ) क्या कहा कि क्या महाराज चंद्रगुप्त नहीं जानते कि कौमुदी महोत्सव अब की १० न होगा।' दुर दईमारो ! क्या मरने को लगे हो ? शीव्रता करो। बहु फूल की माल लपेटि के खंभन धूप सुगंध सो ताहि धुपाइए । ता चहूँ दिसि चंद-छपा से सुसोभित चौंर घने लटकाइये ॥ भार सों चारु सिंहासन के मुरछा में धरा परी धेनु सी पाइये । छोटि के तापें गुलाब मिल्यो जल चंदन ता कहँ जाइ जगाइये ॥ (आकाश की ओर देखकर ) क्या कहते हो कि हम लोग अपने काम में लग रहे हैं ? ' अच्छा अच्छा ! झटपट सब सिद्ध करो देखो! वह महाराज चंद्रगुप्त श्रा पहुंचे। बहु दिन श्रम करि नंद नृप बह्यो राज-धुर जोन ॥ बालेपन ही में लियो चंद सीस निज तीन ॥ डिगत न नेकहु विषम पथ, दृढ़प्रतिज्ञ, हड़गात ॥ गिरम चहत, सँभरत बहुरि, नेकु न जिय घबरात ॥ (नेपथ्य में ) इधर महाराज ! इधर [राजा और प्रतिहारी आते हैं ]