पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१०६

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३५ द्वतीय अंक विराधगुप्त-बहुत अच्छी लगती हैं, वरन् वे सब तो आप ही के अनुयायी हैं। राक्षस-ऐसा क्यों ? विराधगुप्त - इसका कारण यह है कि मलयकेतु के निकलने के पंछे चाणक्य को चंद्रगुप्त में कुछ चिढ़ा दिया और चाणक्य ने भी उसकी बात न सहकर चंद्रगुप्त की यात्रा भंग करके उसको दुःखी ४४० कर रक्खा है । यह मैं भली भाँति जानता हूँ। ___राक्षस-हर्ष मे ) मित्र विराधगुप्त ! इसी सँसेरे के भेस से फिर कुसुमपुः जामो और वहाँ मेरा मित्र स्तनकलस नामक कवि है, उससे कह दो कि चाणक्य के अाशाभंगादिनों के कवित्त बना बना कर चंद्रगुप्त को बढ़ावा देता रहे और जो कुछ काम हो जाय वह करम से कहला भेजे। विराधगुप्त-को आज्ञा झाला है। प्रियंवदक आता है ] प्रियवदक-जय हो महाराज ! शकटदास कहते हैं कि ये तीन आभरण बिकते हैं, इन्हें आप देखें। ४५० राक्षस-( देखकर ) अहा ! ये तो बड़े मूल्य के गहने हैं। अच्छा शकटदास से कह दो कि दाम चुका कर ले लें। प्रियंवदक-जो अज्ञा ( जाता है)। राक्षस- आप ही आप ) तो अब हम भी चलकर करभक को कुसुमपुर भेजें ( उठता है)। अहा ! क्या उस मृतक चाणक्य से और चंद्रगुप्त से बिगाड़ हो जायेगा ? क्यों नहीं? क्योंकि सब कामों को सिद्ध ही देखता हूँ- चंद्रगुप्त निज तेज बल करत सबन को राज । तेहि समझत चाणक्य यह मेरों दियो समाज । अपनो अपनो करि चुके काज रह्यो कछु जौन । अब जो आपुस में लई तो बढ़ अचरज कौन ? ४६० [जाता है ] इति द्वितीयांक