पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/११०

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तृतीय अंक राजा-( अत्यंत क्रोध से ) अच्छा, अब हम वैठेगे। कंचुकी-महाराज ! यह सिंहासन है, विराजिए। राजा-(बैठकर क्रोध से ) पच्छा कंवको । प्रार्य चाणक्य से कहो कि "महराज भारको देखा चाहते हैं "" कंचुकी-जो आज्ञा ( बाहर जाता है)। [एक ओर परदा उठना है औ. चाणक्य बैठा हुआ दिखाई पड़ता है। चाणक्य-(आप ही आप ) दुष्ट राक्षम हमारी बराबरी करता ६० है। वह जानता है कि- जिमि हम नृत-अपमान सों महा क्रोध उर धारि । करी प्रतिज्ञा नंद नृपन्नासन की निरधारि ।। सो तर नंदहिं पुत्र सह नासि करी हम पूर्ण। चंद्रगप्त राजा कियो करि राक्षस-मद चूर्ण ॥ तिमि सोठ मोहिं नीति-बल छलन चहत इति चंद। पै मो आकृत यह जतन वृथा तासु अति मंद ॥ (ऊपर देखकर क्रोध से ) अरे राक्षस ! छोड़ छोड़, यह ब्यर्थ का श्रम, देख- निमि नृप नंद नंदहिं मारि के वृषलहिं दीनों राज । जाइ नगर चाणक्य किय दुष्ट सर्प सों काज || तिमि सोऊ नृप चंद्र को चाइत करन बिगार। निज लघु मति लोध्यो चहत मो बल बुद्धि-पहार ॥ (आकाश की ओर देखकर ) अरे राक्षस ! मेरा पीछा छोड़ । क्योंकि- राज-काज मंत्री चतुर करत बिना अभिमान । जैसो तुव नृप नंद हो चंद्र न तोन समान ॥ तुम कछु नहिं चाणक्य, जो माजी कठिनहु काज। तातों हम सों बैर करि नहिं सरिहै तुव राज ॥