मुद्राराम नाम - ( पास जाकर ) जय हो बृषल की! चंद्रगुप्त-( उठकर और पैरों पर गिर कर ) आर्य! चंद्रशुध दंडवत करता है। चाणक्य-( हाथ पकड़ कर उठा कर ) उठो बेटा उठो। जहँ लौं हिमालय के सिखर सुरधुनी-कन सीतल रहैं। जहँ लौं बिविध मणिखंड-मडित समुद्र दच्छिन दिसि बहैं। तह लौं सबै नृप भाइ भय सो तोहिं सीस मुकावहीं । तिनके मुकुट मणि रँगे तुव पद निरखि हम सुख पावहीं ॥ चन्द्रगुप्त-आर्य ! आपकी कृपा से ऐसा ही हो रहा है बैठिए [दोनों यथा स्थान बैठते हैं ] चाणक्य-वृषल ! कहो, मुझे क्यों बुलाया है। चन्द्र गुप्त-आर्य के दर्शन से कृतार्थ होने को। चाणक्य-(हँस कर ) भया, बहुत शिष्टाचार हुआ। ५.. बताओ, क्यों बुलाया है, क्योंकि राजा लोग किसी कर्मचारी को १८६ ___ बेकाम नहीं बुलाते। .... चन्द्रगुप्त-प्रार्य ! आपने कौमुदी-महोत्सव के न होने में क्या फल सोचा है ? चाणक्य -(हँस कर ) तो यही उलहना देने को बुलाया है, न ? चन्द्रगुप्त-उलहना देने को कभी नहीं। चाणक्य-तो क्यों? चन्द्रगुप्त-पूछने को। चाणक्य-जब पूछना ही है तब तुमको इससे क्या ? शिष्य के सर्वदा गुरु की रुचि पर चलना चाहिए। चन्द्रगुप्त-इसमें कोई संदेह नहीं; पर आपकी रुचि बिना १६/ प्रयोजन नहीं प्रवृत्त होती, इस पूछा। चाणक्य-ठीक है, तुमने मेरा आशय जान लिया । बिन प्रयोजन के चाणक्य की रुचि किसी ओर कमी फिरती ही नहीं। चन्द्रगुप्त-इसीसे तो सुने बिना जी भकुलाता है।
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