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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/११५

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Y मुद्रार क्षम मरे, केवल बहु गहना पहिरि राजा होय न कोय । अहो, जाकी नहिं आज्ञा टरै सो नृप तुम सम होय ॥. चाणक्य-(सुनकर आप ही आप) भला पहले ने तो दे। रूप शरद के वर्णन में आशीर्वाद दिया, पर इस दूसरे ने कहा ? ( कुछ सोच कर ) अरे जाना, यह सब राक्षस की करतूत भरे दुष्ट राज्ञ ! क्या तू नहीं जानता कि अभी चाणक्य सो गया है? चंद्रगुप्त -अजी वैहीनर ! इन दोनों गानेवालों को लाख : लाख मोहर दिलवा दी। वैहीनर-जो आज्ञा महाराज। ( उठकर जाना चाहता है) चाणक्य -(क्रोध से ) वैहोनर ठहर, अभी मत । वृष कुपात्र का इतना क्यों देते हो? . चंद्रगुप्त-आप मुझे सब बातों में यों ही रोक दिया करते तब यह मेरा राज क्या है उलटा बधन है। चाणक्य-वृषन! जो राजा आप असमर्थ होते हैं उनमें । ही तो दोष है। इससे जो ऐसी इच्छा हो तो तुम अपने राज प्रबंध श्राप कर लो। चंद्रगुप्त-बहुत अच्छा, आज से मैंने सब काम सँभाला। चाणक्य-इससे अच्छी और क्या बात है तो मैं भी अधिकार पर सावधान हूँ। । चंद्रगुप्त-जब यही है तब पहले मैं पूछता हूँ कि कौमुदी-महोत्स का निषेध क्यों किया गया ? चाणक्य-वृषल ! मैं भी यह पूछता हूँ कि उसके होने का प्रयो क्या था। . .. चंद्रगुप्त-पहले तो मेरी प्राज्ञा का पालन । चाराय-पहला प्रयोजन यह है कि मैंने आपकी आज्ञा अपालन के हेतु ही कौमुदी महोत्सव का प्रतिषेध किया। क्योंकि - भाइ चारहू. सिंधु . के छोरहु के भूपाल। २ • जो साखन सिर पैं. धरै जिमि फूलन की माल ॥