पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

चतुर्थ अंक रूप द्विजादि जिन नरन को मगल-रूप प्रकास । ते न नीच मुखहू लखहि; कैसो पास निवास ।। (भाकाश की ओर देखकर ) भजी क्या कहा कि क्यों हटाते हो ? अमात्य राचस के सिर में पीड़ा सुनकर कुमार मलयकेतु उनको देखने को इधर ही आते हैं। ( जाता है)। [ भागुरायण और कंचुको के साथ मलयकेतु आवा है ] ५० मलययेतु-लंबी साँस लेकर-आप ही भार ) हा! देखो, पिता को मरे भाज दस महीने हुए भौर व्यर्थ वीरता का अभिमान करके अब तक हम लोगों ने कुछ भी नहीं किया वरन् तपंण करना भी छोड़ दिया। या क्या हुआ मैंने तो पहले यही प्रतीज्ञा ही की है कि- कर बलय उर तारत गिरे आँचरहु की सुधि नहिं परी । मिलि करहिं भारतनाद हाहा अलख खुलि रज सो भरो।। जो शोक सो भइ मातुगन की दशा सो उलटायहैं। करि रिपु-जुवतिगन की सोई गनि पितहि तृप्ति करायहैं । और भी रन मरि पितु ढिग जात हम, बीरन की गति पाय । के माता हंगजल धरत रिपु-जुवती मुख जाय । (प्रकाश) अजी जाजले ! सब राजा लोगों से कहो कि मैं बिना कहे सुने राक्षस मंत्री के पास ले जाकर उनको प्रसन्न करूंगा इससे वे सब लोग उधर ही ठहरें। ___ कंचुको-जो प्राज्ञा । (घूमते घूमते नेपथ्य की ओर देखकर ) अजी राजा लोग ! सुनो। कुमार की आज्ञा है कि मेरे साथ कोई न चले। (देखकर आनंद से) महाराज कुमार ! देखिए ! अपकी माझा सुनते ही मब राजा रु 6 गए- अति चपल जे रथ चलत, ते सुनि चित्र से तुरतहि भए । जे खुरन खोदत नभ-पथहि, ते बाजिगन झुकि रुकि गए । ले रहे धावत, ठिठक्ति के गज मूक घंटा सह सधे। मरजाद तुव नहिं तजहिं नृपगन जलधि से मानहुँ बँधे । ७०