पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१३१

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मुद्राराक्षस नाट मलपकेत-(आप ही आप ) तो हम अच्छे हैं कि सचिव अधिकार में नहीं (प्रकाश) अमात्य ! यद्यपि यह ठीक है तथा जहाँ शत्र के अनेक छिद्र है वहाँ एक इसी सिद्धि से सब काम निकलेगा। राष-कुमार के सब काम इसीसे सिद्ध होंगे। देखिए, बाणक्य को अधिकार छूटयो, चंद्र हैं राजा नए। २५॥ पुर नंद में अनुरक्त, तुम निज बल सहित चढ़ते भए॥ अब आप हम [ कह कर लज्जा से कुछ ठहर जाता है ] तुव बस सकल उद्यम सहित रन मति करी। वह कौन सी नृप ! बात जो नहिं सिद्ध है है ता घरी ॥ मलयकेतु-अमात्य ! जो अब आप ऐसा लड़ाई का समय देखते हैं तो देर करके क्यों बैठे हैं ? देखिए- इनको ऊचो सीस है, वाको उच्च करार । श्याम देऊ, वह जल स्रवत, ये गडन मधु धार ॥ उतै भँवर को शब्द, इत भंवर करत गुजार । निज सम तेहि लखि नासिहैं दंतन तोरि कछार ॥ सीस सोन सिंदूर सों ते मतंग बलदाप। सोन सहज ही सौखिहैं, निश्चय जानहु पाप ॥ गरजि गरजि गंभीर रव, बरति बरनि मधुधार । शत्रु-नगर गज घेरि हैं, धन जिमि विविध प्रहार॥ [शस्त्र उठा कर भ गुरायण के साथ जाता है ] राक्षस-कोई है ? [प्रियंबदक आता है ] प्रियंवदक-श्राज्ञा? राक्षस-देख तो द्वार पर कौन ज्योतिषी है ? प्रियंवदक-जो भाज्ञा (बाहर जाकर फिर आता है) २७० अमात्य ! क्षपणक। राक्षस-(असगुन जानकर आप ही आप ) पहले ही क्षपणक का दर्शन हुआ।