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पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१३४

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पंचम अंक सिद्धार्थक-भदंत तुमने कैसे जाना ! क्षपाक-इसमें छिपी कौन बात है ? जैसे समुद्र में नाव पर सब के आगे मार्ग दिखाने वाला मॉमी रहता है, वैसे ही तेरे हाथ में यह बखौटा है। सिद्धार्थक-प्रजी भदंत ! भला यह तो तुमने ठीक जाना कि मैं परदेश जाता हूँ। पर यह कहो कि भाज दिन कैसा है ? क्षपणक-हँसकर ) वाह श्रावक, वाह ! तुम मूंड़ मुंडा कर भी नक्षत्र पूछते हो? सिद्धार्थक-भला अभी क्या बिगड़ा है ? कहते क्यों नहीं ? दिन असा होगा जायँगे, न अच्छा होगा न जायगे। क्षपणक-चाहे दिन अच्छा हो या न अच्छा हो, मलयकेतु के कटक से बिना मोहर लिए कोई जाने नहीं पाता। सिद्धार्थक-यह नियम कब से हुमा ? क्षपणक-सुनो, पहले तो कुछ भी रोक टोक नहीं थी, पर जब ३० से कुसुमपुर के पास आये हैं, तब से यह नियम हुआ है कि बिना मोहर के न कोई जाय न आवे । इससे जो तुम्हारे पास भागुरायण की मोहर हो तो जाओ नहीं तो चुर बैठे रहो, क्योंकि पीछे स तुम्हें हाथ पैर न बंधवाना पड़े। सिद्धार्थक-क्या यह तुम नहीं जानते कि हम राक्षस के अंतरंग. खेलाड़ी मित्र हैं। हमें कौन रोक सकता है ? क्षपणक-वाहे राक्षस के मित्र हो चाहे पिशाच के, विना मोहर के कभी न जाने पाओगे। सिद्धार्थक-भदंत ! क्रोध मत करो, कहो कि काम सिद्ध हो। क्षपणक-जाओ, काम सिद्ध होगा। हम भी पटने जाने के हेतु ४. भ.गुरायण से मोहर लेने जाते हैं। [ दोनों ज ते हैं ] इति प्रवेशक