सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पंचम भंक भागुरामण-(भाप ही आप ) मार्य चाणक्य की आज्ञा है कि १३० "अमात्य राक्षस के प्राण की सर्वथा रक्षा करना" इससे अब बात फेरें । (प्रकाश) कुमार ! इतना आवेग मत कीजिए । भाप आसन पर बैठिए तो मैं कुछ निवेदन करूं। 1. ' मलयकेतु-मित्र, क्या कहते हो ? (बैठ जाता है)। __ भागुरायण कुमार ! बात यह है कि अर्थशास्त्र वालों की मित्रता और शत्रुता अर्थ ही के अनुसार होती है, साधारण लोगों की भाँति इच्छानुसार नहीं होती। उस समय सर्वार्थ सिद्धि को राक्षस राजा बनाचा चाहता था तत्र देव पर्वतेश्वर ही इस कार्य में कंटक थे। सो उस कार्य की सिद्धि के हेतु यदि राक्षस ने ऐसा किया तो कुछ दोष नहीं । आप देखिर- १४० मित्र शत्रु हवै जात हैं, शत्रु करहिं अति नेह। अर्थनीति बस लोग सब, बदलहिं मानहुँ देह ॥ इसे राक्षस को ऐसी अवस्था में दोष नहीं देना चाहिए। और 'जब तक नंदराज्य न मिले तब तक उस पर प्रगट स्नेह ही रखना नीतिसिद्ध है। राज्य मिलने पर कुमार जो चाहेंगे करेंगे। मलयकेनु-मित्र ! ऐसा ही होगा। तुमने बहुत ठीक सोचा है। इस समय इसका वध करने स प्रजागण उदास हो जायगे और ऐसा हाने से जय में भी संदेह होगा। [एक मनुष्य आता है ] मनुष्य-कुमार की जय हो। कुमार के कटकद्वार के रक्षाधि-१५० कारी दोघेचक्षु ने निवेदन किया है कि "मुद्रा लिए विना एक पुरुष कुछ पा सहित बाहर जाता हुआ पकड़ा गया है, सो उसको एक बेर आप नख ले।" भागुरायण-प्रच्छा, उसको.ले माओ। पुरुष-जो आज्ञा। [ बाहर जाता है और हाथ बँधे हुए सिद्धार्थक को लेकर आता है। सिद्धार्थक-श्राप ही आप )