पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१४१

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मुद्राराक्षस जाटव मलयकेतु-भद्र ! उठो, शरणागत जन यहाँ सदा अभय हैं । तुम इसका वृत्तांत्त कहो। सिद्धार्थक--( उठकर) सुनिए। मुझको अमात्य राक्षस ने यह पत्र देकर चंद्रगुप्त के पास भेजा था। मलयकेतु--जमानी क्या कहने कहा था वह कहो। २२० सिद्धार्थक--कुमार, मुझको अमात्य राक्षस ने यह कहने कहा कि मेरे मित्र कुलून देश के राजा चित्रवर्मा, मलमाधिपति सिंहनाद काश्मीरेश्वर पुष्कराक्ष, सिंध महाराज सिंधुसेन और पारसीक-पालक मेधाक्ष इन पाँच राजाओं से आप से पूर्व में संधि हो चुकी है। इसमें पहले तीन तो मलयकेतु का राज चाहते हैं और बाकी दे! खजाना और हाथों चाहते हैं। जिस तरह महाराज ने चाणक्य को खा कर मुझको प्रसन्न किया उसी तरह इन लेगों को भी प्रसन्न करना चाहिए । यही राजसंदेश है। मलरकेतु-(पाप ही आप ) क्या चित्रवर्मादिक भी इमा द्रोही हैं ? तभी राक्षस में उन लोगों की ऐसी प्रीति है। (प्रकाश ) २३४ विजये ! हम अमात्य राक्षस को देखा चाहते हैं। प्रतिहारी-जो आज्ञा ( जाती है)। [एक परदा हटता है और राक्षस आसन पर बैठा हुआ चिंता की मुद्रा में एक पुरुष के साथ दिखलाई पड़ता है ] राक्षस- आप ही आप ) चंद्रगुप्त की ओर के बहुत लोग हमारी सेना में भरती हो रहे हैं, इससे हमाग मन शुद्ध नहीं है क्योंकि रहत साध्य ते अन्वित अरु विलसत निज पच्छहि। सोई साधक जो नहिं छुअत बिपच्छहि ॥ . जो पुनि आपु असिद्ध, सपच्छ बिपच्छह में सम । कछु कहुँ नहिं निज पच्छ माँहि जाको है संगम ॥ नरपति ऐसे साधनन को अनुचित अंगीकार करि । .. सब भाँति पराजित होत हैं बादी लौं बहु विधि बिगरि ॥ .