पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१४२

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पंचम अंक वाजो लोग चंद्रगुप्त से उदास हो गए हैं वही लोग इधर मि हैं, मैं व्यर्थ सोच करता हूँ। (प्रगटः) प्रियंवदक ! कुमार अनुयायी राजा लोगों से हमारी ओर से कह दो कि कुसुमपुर दिन दिन पास आता जाता है, इससे सब लोग अपनी सेना अना अलग करके जो जहाँ नियुक्र हों वहाँ सावधानी से रहें। . भागे खस अरु मगध चलें जय ध्वजहिं उडाए । यवन और गधार रहैं मधिसैन जमाए ॥ २५० चेदि हुन सक राज लोग पाछे सों धावहिं । कौलूतादिक नृपति कुमारहिं धेरै आवहिं ।। प्रियंवदक-अमात्य को जो अज्ञा जाता है)। प्रतिहारी भाती है ] प्रतिहारी-अमात्य की जय हो ! कुमार अमत्य को देखन चाहते हैं। रतिस-भद्र क्षण भर ठहरो। बाहर कौन है ? । मनुष्य-अमात्य ! क्या माज्ञा है ? राक्षस-भद्र ! शकट दास से कहो कि जब से कुमार ने हमके भाभरण पहराया है तब से वो नंगे अंग जाना हमी २६ उचित नहीं है, इससे जो दो भरण मोज लिए हैं, उनमें से एक भेज दे। ___ मनुष्य-नो अमात्य की प्राज्ञा । ( बाहर जाता है, प्रामा लेकर आता है ) अमात्य, अलंकार जीलिए। राक्षस- अलंकार धारण करके ) श्रद्रे ! राजकुल में शने मार्ग तल यो। प्रतिहार --इधर ले आइए। राक्षय - शात : अधिकार ऐसी बुरी वस्तु है कि निर्दोष मद जी भी डरा करता है। कारण- सेवक प्रभु सों डरत सदा ही। पराधीन सपने सुख नाहीं॥ जे ऊँचे पद के अधिकारी । तिनको मनहीं मन भय भार॥ २७. सबही द्वेष बड़न सो करही। अनुछिन कान स्वामि को भरही ।