पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१४४

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पंचम अंक ७३ . राक्षस-(देखकर ) अरे ! सिद्धार्थक है । भद्र ! यह क्या ? सिद्धार्थक-(आँसू भरकर और लज्जा नाट्य करके ) अमात्य । हमको क्षमा कीजिए। अमात्य ! हमारा कुछ दोष भी नहीं है । मार खाते खाते हम आपका रहस्य छिपा न सके। राक्षस-भद्र ! वह कौन सा रहस्य है यह हमको नहीं समझ पड़ता। ___ सिद्धार्थक-निवेदन करते हैं, मार खाने से......( इतना ही कह लज्जा से नीचा मुँह कर लेता है।) मलयकेतु-भागुरायण ! स्वामी के सामने लज्जा और भय से यह कुछ न कह सकेगा इससे तुम सब बात आर्य से कहो। ३१० भागुरायण-कुमार की जो आज्ञा । अमात्य ! यह कहता है कि अमात्य राक्षस ने हमको चिट्ठी देकर और संदेश कहकर चंद्रगुप्त के पास भेजा है ! राक्षस-भद्र सिद्धार्थक ! क्या यह सत्य है ? सिद्धार्थक-(लज्जा नाट्य करके ( बहुत मार खाने से मैंने कह दिया। राक्षम्र-कुमार ! यह झूठ है। मार खाने से लोग क्या नहीं कह देते। ____ मलयकेतु-भागुरायण ! चिट्ठी दिखला दो और सँदेशा वह अपने मुंह से कहेगा। भागुरायण-(चिट्ठी खोलकर 'स्वस्ति कहीं से कोई किसी को' इत्यादि पढ़ता है।) राक्षस--कुमार ! कुमार ! यह सब शत्रु की प्रयोग है। मलयकेतु-लेख अशून्य करने को आर्य ने जो आभरण भेजे हैं, वह शत्रु कैसे भेजेगा ? ( आभरण दिखलता है) राक्षस--कुमार | यह मैंने किसी को नहीं भेजा। कुमार ने यह मुझको दिया और मैंने प्रसन्न होकर सिद्धार्थ क को दिया। .. मागुरायण-अमात्य ! क्या ऐसे उत्तम प्राभरणों का, विशेष कर अपने अंग से उतारकर कुमार की दी हुई वस्तु का, यह पात्र है ?