पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१४६

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पंचम अंक पुत्र दार को याद करि स्वामिभक्ति तजि देत । छोड़ि मचल जस को करत चल धन सों जन हेत ॥ या इदमें संदेह ही क्या है ३६० मुद्रा ताके हाथ में, सिद्धार्थक हू मित्र । ताही के कर को लिख्यौ, पत्रह साधन चित्र ॥ मिलि के शत्रुन सों करन भेद भूलि निज धर्म । स्वामि विमुख शकटहि कियो निश्चय यह खल कर्म ॥ मलयकेतु-आर्य ! 'श्रीमान् ने तीन आभरण भेजे, सो मिलें', यह जो आपने लिखा है खो उसी में का एक अाभरगह यह भी है। (राक्षम के पहने हुए श्राभरण को देखकर आप ही आप ) क्या यह पिता के पहने हुए आभरण हैं ! (प्रकाश) आर्य ! यह आमरण अपने कहाँ से पाया ? राक्षस-जौहरी से मोल लिया था। ____३७० मलमकेतु-विजये! तुम इन आभरणों को पहचानती हो ? प्रतिहारी- देखकर आँसू भर के) कुमार ! हम सुगृहीत नाम- धेय महाराज पर्वतेश्वर के पहिरने के आभरणों को न पहचानेंगी.१ . मलयकेतु-(आँखों में आँसू भरके) भूषण-प्रिय ! भूषण सबै, कुल भूषण ! तुम अंग । तुव मुख ढिग इमि सोहतो जिमि ससि तारन संग ॥ राक्षस-(आपही आप ) ये पर्वतेश्वर के पहने हुए आभरण हैं। (प्रकाश) जाना, यह भी निश्चय चारण के भेजे हुए जौहरियों ___मलयकेतु-आर्य ! पिता के पहिने हुए आमरण और फिर ३८० चंद्रगुप्त के हाथ पड़े हुए, जौहरी वेंचे, यह अभी भी हो सकता। अथवा हो सकता है। अधिक लाभ के जोभ सों, कूर ! त्यगि सब नेह । बदले इन आभरण के तुम बच्यो मम देह ॥ राक्षस-(आप ही आप ) अरे ! यह दाँव तो पूरा बैठ गया।