पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१५०

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| सिद्धार्थक-अहा ! मित्र समिद्धार्थक आप ही आ गए। ( बढ़कर) कहो 'मत्र ! क्षेम कुशल तो है.। [दोनों गले से मिलते हैं ] । समिद्धार्थक-भला यहाँ कुशल कहाँ ? अब तुम्हारे ऐसा मित्र २० बहुत दिन पीछे घर भी आया तो बिना मिले फिर चला गया। सिद्धार्थक-मित्र ! क्षमा करो। मुझको देखते ही आर्य चाणक्य ने आज्ञा दी कि इस प्रिय वृत्तांत को भभी चंद्रमा के सदृश शोभा- वाले परम प्रिय महाराज प्रियदर्शन से जाकर कहो। मैं उसी समय महाराज के पास चला गया और उनसे निवेदन करके यह सब पुरस्कार पाकर तुमसे मिलने को तुम्हारे घर अभो जाता ही था। 1 समिद्धार्थक-मित्र जो सुनने के योग्य हो तो महाराज प्रियाशन से जो प्रिय वृत्तांत कहा है वह हम भी सुनें। सिद्धार्थक-मित्र तुमसे भी कोई बात छिपी है । सुनो, आर्य चाणक्य को नीति से मोहित-मति होकर उस नष्ट मलयकेतु ने ३० राक्षस को दूर कर दिया और चित्रवर्मादिक पाँचो प्रबल राजों को मरवा डाला । यह देखते ही और सब राजे अपने प्राण और राज्य का संशय समझकर भय से मलयकेतु के पड़ाव को छोड़कर सेना सहित अपने अपने देश चले गये। जब शत्रु ऐसी निर्बल अवस्था में हुभा तो भद्रभट, पुरुषदत्त, हिंगुराव, बलगुप्त, राजसेन, भागु- रायण, रोहिताक्ष, विजयवर्मा इत्यादि लोगों ने मलयकेतु को कैद कर लिया। समिद्धार्थक-मित्र ! यह तो लोग जानते है कि भद्रभट इत्यादि लोग महाराज चंद्रश्री को छोड़कर मलयकेतु से मिल गये हैं। तो क्या कुकवियों के नाटक की भाँति इसके मुख में और निवर्हण ४. में और बात है? सिद्धार्थक-क्यस्य ! सनो, जैसे दैव की गति नहीं जानी जाती वैसे ही आर्य चाणक्य की जिस नीति को भी गति नहीं जानी जाती उसको नमस्कार है! - ममिद्धार्थक-हाँ कहो तब क्या हुआ ?