पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१५१

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मुद्राराक्षध नाटा सिद्धार्थक-तब इधर से सब सामग्री लेकर आर्य चाणक्य वा निकले और विपक्ष के शेष राजाभों को निःशेष करके बबर लो. की सब सामग्री लूट ली। समिद्धार्थक-जो अब वह सब कहाँ है ? सिद्धार्थक-वह देखो स्ववत गंड (मद गरव गज, नदत मेघ-अनुहार। चाबुक-भय चितवत चपल खड़े अस्व बहु द्वार ॥ समिद्धार्थक-अच्छा यह सब जाने दो, यह कहो कि सब लो. के सामने इतना अनादर पाकर फिर भी आर्य चाणक्य उसी मंत्र के काम को क्यों करते हैं । - सिद्धार्थक-मित्र ! तुम अब तक निरे सीधे सादे बने हो। अं अमात्य राक्षस भी मार्य चाणक्य की जिन चालों को नहीं समर सकते उनको हम तुम क्या समझंगे ? समिद्धार्थक-वयस्य ! राक्षस अब कहाँ हैं ? सिद्धार्थक-उस प्रलय कोलाहल के बढ़ने के समय मलयकेतु की सेना से निकलकर उंदुर नामक चर के साथ कुसुमपुर ही की ओर वह पाते हैं, यह आर्य चाणक्य को समाचार मिला है। समिद्धार्थक-मित्र ! नंद राज्य के फिर स्थापन की प्रतिज्ञा करके स्वनाम-तुल्य-पराक्रम अमात्य राक्षस उस काम को. पूरा किये बिना फिर कैसे कुसुमपुर भाते हैं.... .. . सिद्धार्थक -हम सोचते हैं कि चंदनदास के स्नेह से। समिद्धार्थक-ठीक है चंदनदास के स्नेह ही से। किंतु तुम सोचते हो कि चंदनदास के प्राण बचेंगे? सिदार्थक-हाँ उस दीन के प्राण बचेंगे? हमी दोनो को बध- स्थान में ले जाकर उसको मारना पड़ेगा। समिद्धार्थक- क्रोष से) क्या मार्य चाणक्य के पास कोई घातक नहीं है कि ऐसा नीच काम हम लोग करें ?