पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१५४

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वा जिसके प्रसाद से यह सब था, जब वही नहीं है तो यह होईगा । ( देख कर ) यह पुराना उद्यान कैसा भयानक हो रहा है। नसे विपुल नृप कुल-सरिस बड़े बड़े गृह जाल। मित्र नास सो साधुजन-हय सम सूख्यो ताल॥ तरुवर भे फलहीन जिमि विधि विगरे सब नीति । तृन सो लोपी भूमि जिमि मति लहि मूद कुनीति । तीधन परसु प्रहार सों कटे तरोवरगात । रामत मिलि पिंडूक सँग ताके घाव लखात ॥ दुखी जानि निज मित्र कहँ अहि मनु लेत उसास। निज केंचुल मिस धरत है फाहा तरु बन पास ॥ तरुगन को सूख्यो हियो, छिदे कीट सों गात । दुखी, पत्र फल छोह बिनु मनु मखान सब जात ॥ तो तब तक हम इस शिला पर, जो भाग्यहोनों को सलभ है, बैठे। (बैठकर और कान देकर सुनकर) भरे ! यह शंख-ड से १४० मिला हुआ नांदी शब्द कहाँ हो रहा है। प्रति ही तीखन होन नों फोरत श्रोता कान । जब न समायो घरन.मैं तब इत कियो पयान ॥ संख पटह-धुनि सो मिल्यो भारी मंगल-नाद । निकस्यो मनहुँ दिगंत की दुरी देखन स्वाद ॥ (कुछ सोचकर ) हाँ जाना । यह मलयकेतु के पकड़े जाने पर राजकुल रुक कर) मौर्य कुल को पानंद देने को हो रहा है। (आँखों में सू भर कर ) हाय ! बड़े दुःख की बात है। मेरे बिनु अब जीति बल, शत्र पाइ बल घोर। मोहिं सुनावन हेतु हो कीन्हों शब्द कठोर ॥ १५० पुरुष-अब तो यह बैठे हैं, तो आर्य चाणक्य की प्राज्ञा पूरी करें। ( राक्षस की भोर न देख कर अपन गले में फाँसी लगाना चाहता है)।