पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१५३

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८२ मुद्राराक्षस नाटक जाइ तहाँ थिर है रही नज गुन सहज बिसारि । बस न चलत नब बाम विधि सब कछु देत बिगारि ॥ नंद मरे, सैलेश्वरहिं देन बद्धो हम राज। मोऊ विनसे, तब कियो ता सुत-हित सों साज ॥ बिगर्यो तीन प्रबंधहू मिट्यो मनोरथ मूल। .. दोस कहा चाणक्य को ? देवहि भो प्रतिकूल ॥ . वाह रे म्लेच्छ मलयकेतु की मूर्खता ! जिसने इतना नहीं समझा कि- मरे स्वामिहू नहिं तज्यो जिन निज नृप अनुराग । लोभ छाँदिदै प्रान जिन करी शत्रु सों लाग ।। सोई राक्षस शत्रु सों मिलिहै यह अंधेर । इतनो सूझ्यौ वाहि नहिं, दई दई मत फेर ॥ ११० सो अब भी शत्रु के हाथ में पड़ के राक्षस नाश हो जायगा, पर चंद्रगुप्त से संधि न करेगा। लोग झूठा कहैं, यह अपयश हो; पर शत्रु की बात कौन सहेगा (चारों भार देखकर ) हा? इसी प्रांत में देव नंद रथ पर चढ़कर फिरने भात थे। इतहि देव अभ्यास हित सर सनि धनु संधानि । रचत रहे भुव चित्र सम रथ सुचक्र परिखानि ॥ बह नूपगन संकित रहे इत उत थमे लखात । सोई भुष ऊजर भई, हगन सखी नहिं जात ॥ हाय ! यह मंदभाग्य कहाँ जाय ? (चारों ओर देखकर ) चलो, इस पुरानी बारी में कुछ देर ठहर कर मित्र चंदनदास का कुछ १२० समाचार ले। (धूमकर भाप ही भाप ) अहा पुरुषों के भाग्य की उन्नति अवनति की भी क्या क्या गति होती है, कोई नहीं जानता। जिमि नव ससि कह सब लखत निज निज करहिं उठाय । तिने पुरणन हमको रहे खखत अनन्द बदाय ॥ चाहत है नृपगने सबै बासु कृपा-दृग कोर । सो हम इत संकित ' बलत मानहु कोऊ चोर ॥