पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/१५६

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छठा अंक राक्षस-भद्र ! तुम्हारे मित्र के अन-प्रवेश का कारण क्या है ? के तेहि रोग असाध्य भयो, कोळ जाको न औषध नाहिं निदान है ? पुरुष नहीं भार्य ! राक्षस-के विष अग्निहु सों वदिक नृप-कोप महा फॅसि त्यागत प्रान है ?* पुरुष-राम राम ! चंद्रगुप्त के राज्य में लोगों को प्राणहिसा का भय कहाँ ? राक्षास-के कोठ सुन्दरी पै जिय देत, लग्यो हिय माहि बियोग को बान है ? १६० पुरुष-राम राम ! महान लोगों की यह चाज नहीं, विशेष कर साधु जिपणुदास की। राक्ष तो कहुँ मित्रहि को दुख वाहु के नास को हेतु तुम्हारे समान है ? पुरुष-हाँ, आर्य। राक्षस-(घबड़ा कर भाप ही आप ) अरे, इसके मित्र का प्रिय - मित्र तो चंदनदास ही है और यह कहता है कि सुहृद्-विनाश ही उसके विनाश का हेतु है, इससे मित्र के स्नेह से मेरा चित्त बहुत ही घबड़ाता है। (प्रकाश ) भद्र ! तुम्हारे मित्र का चरित्र हम सविस्तार सुना चाहते है। . २०० पुरुष -आर्य ! अब मैं किसी प्रकार से मरने में विलंब नहीं कर साता। राक्षस-यह वृत्तांत तो अवश्य सुनने के योग्य है, इससे कहो। पुरुष-क्या करें। आप एसा हठ करते हैं तो सुनिये । राक्षस-डाँ! जी लगा कर सुनते हैं, कहो। पुरुष-आपने सुना ही होगा कि इस नगर में प्रसिद्ध जोहरी सेठ चदनदास है। ..